माँ ! मै सन्यासी बनूँगा। (कहानी)

आज से 1200 वर्ष पूर्व मालाबार गांव में एक प्रसिद्ध संत थे।
यह घटना उनके बाल्यावस्था की

है। जब वह बचपन में हमेशा अपनी माता जी से कहते, 'माँ मुझे सन्यासी बनने की इच्छा है, आप मुझे संन्यासी बनाने की आज्ञा दे दीजिये '। पर माँ का तो अपने पुत्र के प्रति मोह हमेशा रहता है, भला वो कहां आज्ञा देने वाली। उनसे उनकी भावनाएं जुडी हुई थी। वे जब भी उनसे सन्यासी बनने की आज्ञा की प्रार्थना करते उनकी माँ उनसे भावनात्मक हो हो जाती, और उनका दिल पिघल जाता। परंतु उनके मन में सदैव संन्यासी बनने का सुर रहता था।
एक दिन की बात है, वे नदी के तट पर स्नान कर रहे थे। कुछ ही समय में एक मगरमच्छ ने उनका पैर अपने मुँह में पकड़ लिया परन्तु उस बालक के मन में अब भी सन्यासी बनने का सुर था। ऐसी विकट परिस्थिति में उन्होंने इसे आज्ञा पाने का माध्यम बनाया। माँ को इस बात का पता चला, वे दौड़ते दौड़ते तट के किनारे गयी। उन्हें ऐसी स्थिति में देख, वे स्वयं उसे बचाने के लिए नदी में उतरने लगी परन्तु बालक ने माँ से कहा -'माँ आप नदी में न आएं नही तो ये मगर मुझे और खा लेगा,। माँ सहम कर पीछे हट गयी। बालक ने माँ से कहा ,' माँ आप यदि मुझे सन्यासी बनने की आज्ञा दे दे ,तो यह मगर मुझे छोड़ देगा।' माँ अचंभित हो गयी। माँ ने कहा बेटा- 'हठ नही करते ' आप उसके मुख से निकल कर तुरंत यहां आइये। परन्तु बालक कहाँ मानने वाला था। मगर उनके पैर को पानी के अंदर की ओर खिंचता जा रहा था। माँ के आँख में आंसू की धराये बहती जा रही थी, उनका मन द्रवित हो गया, मेरा इतना छोटा बालक, इतनी कम उम्र में सन्यासी बनने जा रहा है।  अंततः हार कर माँ बालक को संन्यास धरण की आज्ञा दे देती है और बालक को अपने गले से लगते हुए, उनके यशस्वी होने का आशीर्वाद देती, और रोती रही।
       ऐसे बालक का नाम महान शंकराचार्य था, जो बाद में चल कर जगतगुरु के नाम से जाने गए।
       दोस्तों, हमारे महान भारत वर्ष में ऐसे ऐसे महान व्यक्ति हुए है,  जिन्होंने सत्य की खोज में अपने सभी सुखों का त्याग किया है। भावी पीढ़ियों के सुखद भविष्य के लिये उन्होंने अपने जीवन का दान दिया है।
     ऐसे व्यक्तित्व के धनी महान को हम सभी का शत शत नमन है।

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