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तेप्सुगन दोको कनाई युग के प्रसिद्ध झेन संत

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तेप्सुगन दोको कनाई युग के प्रसिद्ध झेन संत हुए हैं। तेरह वर्ष की छोटी आयु में हीउ न्होंने बौद्ध धर्म की दीक्षा ग्रहण कर ली और जन-जन तक भगवान बुद्ध की शिक्षाओं को पहुँचाने का बीड़ा उठाया। शीघ्र ही उन्हें यह ज्ञान हो गया कि समाज के हर वर्ग तक बौद्ध धर्म को पहुँचाने हेतु धर्मसूत्रों का प्रकाशन स्थानीय भाषा में करना होगा। तेत्सुगन ने प्रण किया कि वे जापान के हर गाँव, हर नगर में भिक्षाटन कर अपने संकल्प की पूर्ति के लिए जरूरी धन का उपार्जन करेंगे। दस वर्षों के अबाध परिश्रम के बाद इस महती कार्य के आवश्यकतानुसार पूँजी एकत्र हो पाई। ग्रंथ का प्रकाशन अभी आरंभ हुआ ही था कि ऊजी नदी में भयंकर बाढ़ आ गई और हजारों बेघर हो गए। दया वा प्रेम की मूर्ति, संत तेप्सुगन ने समय गँवाए बिना सारा धन जरूरतमंदों में बाँट दिया और पुनः देशाटन पर निकल पड़े। कई वर्षों के प्रयास और धनसंग्रह के उपरांत प्रकाशन प्रारंभ हुआ, किंतु उसी वर्ष जापान को महामारी ने आ घेरा सहयोगियों के घनघोर विरोध के बावजूद तेप्सुगन ने एकत्रित धन पुनः पीड़ितों में बाँट दिया । कहते हैं कि उसके पश्चात उन्हें बीस वर्ष और लगे पर अंततः अपना शरीर छोड़

छठ पूजा- आस्था का महापर्व

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  उगते हुए  सूर्य को सब प्रणाम करतें है, अस्त होते हुए सूर्य को कौन पूजता है! परंतु पूर्वांचल संस्कृति में अस्त होते हुए सूर्य की भी पूजा होती है, ऐसा माना जाता है कि सूर्य भगवान ही एक मात्र ऐसे भगवान है जिनके हम सजीव दर्शन कर सकतें है, और जिनके कारण हम सब जीवित है , हम सबका अस्तित्व है और हम सबको यह चाहिए कि हम सब उनके प्रति कृतज्ञ रहें। छठ पूजा इसी कृतज्ञता को व्यक्त करने का माध्यम है। छठ पूजा का आरंभ   एक कथा के अनुसार प्रथम देवासुर संग्राम में जब असुरों के हाथों देवता हार गये थे , तब देव माता अदिति ने तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति के लिए देवारण्य के देव सूर्य मंदिर में छठी मैया की आराधना की थी । तब प्रसन्न होकर छठी मैया ने उन्हें सर्वगुण संपन्न तेजस्वी पुत्र होने का वरदान दिया था । इसके बाद अदिति के पुत्र हुए त्रिदेव रूप आदित्य भगवान , जिन्होंने असुरों पर देवताओं को विजय दिलायी । कहा जाता हैं कि उसी समय से देव सेना षष्ठी देवी के नाम पर इस धाम का नाम देव हो गया और छठ का चलन भी शुरू हो गय