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आपकी मूर्ति कहाँ है

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                      आपकी मूर्ति कहाँ है सिकन्दर की राजधानी में एक सुन्दर बगीचा था। उसमें प्राचीन और  विद्यमान पराक्रमी पुरुषों की मूर्तियाँ खड़ी की गयी थीं। एक बार सिकन्दर की राजधानी देखने के लिए कोई बड़ी विदेशी आया। वह सिकन्दर का ही मेहमान था, अतः उसे शाही अतिथि गृह में ठहराया गया। सिकन्दर उसे अपना शाही बगीचा दिखाने के लिए अपने साथ ले गया। वहाँ रखी हुई मूर्तियों के बारे में मेहमान के पूछने पर कि यह किसकी मूर्ति है, सिकन्दर उसके बारे में उचित जानकारी देता। सारी मूर्तियाँ देखने के बाद मेहमान ने पूछा, “महाराज, आपकी मूर्ति कहीं भी दिखाई नहीं दी सिकन्दर ने जवाब दिया, “मेरी मूर्ति यहाँ रखी जाय और फिर अगली पीढ़ी यह प्रश्न करे कि यह मूर्ति किसकी है, इसकी अपेक्षा से बेहतर यह अधिक अच्छा लगेगा कि मेरी  मूर्ति ही न रखी जाय और लोग पूछे कि सिकन्दर की मूर्ति क्यों नहीं है?"

धन्य धान्य पुष्प भरी वसुंधरा ये हमारी (गीत)

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 धन्य धान्य पुष्प भरी वसुंधरा ये हमारी। धन्य धान्य पुष्प भरी वसुंधरा ये हमारी इसमें है ये देश हमारा सब देशों में न्यारा, इसे सपनों से सजाया हमने स्मृतियों से है घेरा  ऐसा देश जहां पे ढूंढे पायेगा न कोई सब देशों की रानी है ये हमारी जन्म भूमि....... ये प्यारी जन्म भूमि, ये हमारी जन्म भूमि...... ऐसी प्यारी नदियां कहाँ , कहाँ ऐसे धूम्र पहाड़ कहाँ खेत हरियाली ऐसी धरती चूमे आकाश, यहां हर भरे खेतों पे डोले पुरवैया हौले हौले। ऐसा देश जहां पे ढूंढे पायेगा न कोई सब देशों की रानी है ये हमारी जन्म भूमि....... ये प्यारी जन्म भूमि, ये हमारी जन्म भूमि...... माँ भाई का प्यार है ऐसा , कहाँ मिलेगा जग में ऐसा  माँ तुम्हारे चरणों को मैं सीने से लगा लूँ, इस देश मे मैन जन्म लिया माँ अंतिम सांस यहां लूँ। ऐसा देश जहां पे ढूंढे पायेगा न कोई सब देशों की रानी है ये हमारी जन्म भूमि....... ये प्यारी जन्म भूमि, ये हमारी जन्म भूमि......      यह गीत धन्य धन्य पुष्पे भरा बंगाली गीत का हिंदी रूपांतरित गीत है जो कि गाने में बहुत ही उत्तम प्रकृति का है।             ( ধনধান্য   পুষ্প   ভরা   আমাদের   এই   বসুন্ধরা) 

लड़ लो -झगड़ लो मगर बोलचाल बंद मत करो

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सदा याद रखना, भले ही लड़ लेना-झगड़ लेना, पिट जाना-पीट देना, मगर बोलचाल बंद मत करना, क्योंकि बोलचाल के बंद होते ही सुलह के सारे दरवाजे बंद हो जाते है। गुस्सा बुरा नहीं है। यह मानव स्वभाव है लेकिन गुस्से के बाद आदमी जो बैर पाल लेता है, वह बुरा है। पालते गुस्सा तो बच्चे भी करते है, मगर बैर नहीं वे इधर झगड़ते हैं और उधर अगले ही क्षण फिर एक हो जाते हैं। कितना अच्छा रहे कि हर कोई बच्चा ही रहे। कुछ व्यक्ति ऐसे होते है जो गलती से प्रेरणा लेकर उससे लाभ उठाते हुए आगे के लिए सावधान हो जाते है और कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं, जिन्हें कभी अपनी गलती का अहसास ही नहीं होता और वे जिन्दगी भर ठोकरें खाते रहते है। क्षमापना का दिन साल भर का हिसाब किताब पूरा कर लेना है। कल से नया खाता खुलेगा, नए बहीखाते होंगे, पर इस नए बहीखाते में पुराने बहीखाते की बैलेंस शीट नहीं होगी। सालभर में व्यक्ति ने जो भी बैर-विरोध किया हो, उसके लिए क्षमा याचना करता है और मिच्छामि-दुक्कड़म्' बोलता है।

क्षमा बड़न को चाहिए

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क्षमा बड़ी चीज है। बतौर उदाहरण एक बार संख्या 9 ने संख्या 8 को थप्पड़ मार दिया। 8 रोने लगा और पूछा, मुझे थप्पड़ क्यों मारा ? तो 9 ने कहा, क्यों मारा ? मैं बड़ा हूँ। इसलिए तुम्हें मार सकता हूँ। यह मेरा अधिकार है। यह सुनते ही 8 ने 7 को थप्पड़ मार दिया और 9 वाली बात दोहरा दी। फिर क्या था ? फिर तो यह सिलसिला चल पड़ा। सात ने 6 को मारा 6 ने 5 को मारा 5 ने 4 को मारा 4 ने 3 को मारा 3 ने 2 को मारा, 2 ने एक को मारा। अब एक किसको मारे ? एक ने अपने नीचे 0 (शून्य) को देखा तो उसकी हालत तो थप्पड़ पड़ने से पहले ही पतली हो रही थी। एक ने उसे मारा नहीं, बल्कि उसे प्यार से उठाकर अपने बगल में बैठा लिया और ज्यों ही शून्य की बगल में बैठाया एक की ताकत 10 गुना बढ़ गई। अब तो 9 की हालत देखने लायक थी लेकिन 10 ने उसे मारा नहीं, अपितु उसे माफ कर दिया और उसको भी अपने बगल में बैठा लिया । 9 के बगल में बैठते ही एक का कद 109 हो गया। माफ करने वाला, क्षमा करने वाला हमेशा बड़ा ही होता है।

दया यज्ञ

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 एक गृहस्थ ने तीन यज्ञ किये जिनमें उसका सब धन खर्च हो गया। गरीबी से छूटने के लिए एक विद्वान् ने बताया कि तुम अपना यज्ञों का पुण्य अमुक सेठ को बेच दो, वह तुम्हें धन दे देंगे। वह व्यक्ति पुण्य बेचने चल दिया। रास्ते में एक जगह भोजन करने बैठा तो एक भूखी कुतिया वहाँ। बैठी मिली, जो बीमार भी थी चल फिर भी नहीं सकती थी। उसकी दशा देख कर गृहस्थ को दया और उसने अपनी रोटी कुतिया को खिला दी और खुद भूखा ही आगे चल दिया।  धर्मराज के यहाँ पहुँचा तो उनने कहा- तुम्हारे चार यज्ञ जमा है। जिसका पुण्य बेचना चाहते हो? गृहस्थ ने कहा- मैंने तो तीन ही यज्ञ किये थे, यह चौथा यज्ञ कैसा? धर्मराज ने कहा- यह दया-यज्ञ है। इसका पुण्य उन तीनों से बढ़कर है । गृहस्थ ने एक यज्ञ का पुण्य बेचा। उसमें जो धन मिला उससे दया- यज्ञ करने लगा। पीड़ितों की सहायता ही उसका प्रधान लक्ष बन गया। इसके पुण्य फल से उसने अपने लोक-परलोक दोनों सुधारे। दया और उदारता से प्रेरित होकर किया हुआ परोपकार साधारण धर्म प्रक्रियाओं की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ है ।

भविष्य की तैयारी

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 एक राज्य का यह नियम आज्ञा कि जो राजा गद्दी पर बैठे उसे दस वर्ष बाद ऐसे निविड़ वन में छोड़ दिया जाय जहाँ अन्न-जल उपलब्ध न हो और वहाँ वह भूखा प्यासा तड़प-तड़प कर मर जाए कितने ही राजा इसी प्रकार अपने प्राण गँवा चुके थे और राज्य के दिनों में भी भविष्य की चिन्ता से दुखी रहते थे। एक बार एक बुद्धिमान राजा गद्दी पर बैठा। उसे भविष्य का ध्यान था। उसने उस निविड़ वन को देख और वहाँ खेती कराने, जलाशय बनाने, पेड़ लगाने तथा प्रजा बसाने का कार्य आरंभ कर दिया। दस वर्ष में वह भयावना प्रदेश अत्यंत रमणीक और आनन्द दायक बन गया। राजा अपनी अवधि समाप्त होते ही वहाँ गया और शेष जीवन सुख पूर्वक व्यतीत किया। जीवन कुछ दिन का राज है, इसके बाद चौरासी लाख योनियों का कुचक्र फिर तैयार है। जो इस नर तन को पाकर सुकर्मों द्वारा अपना परलोक बना लेते हैं वे ही इस बुद्धिमान राजा की तरह दूरदर्शी होते हैं।

चार मूर्ख

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 एक गाँव में एक प्रसिद्ध संत का आगमन हुआ। उसी गाँव में चार मूर्ख मित्र भी निवास करते थे। संत का स्वागत-सत्कार देख, उन्हें बड़ी उत्सुकता हुई, पूछा तो पता चला कि संत ने मौन रहकर गहन तपस्या की है और बहुत सी सिद्धियों के स्वामी भी हैं। बस, फिर क्या था, मूर्खों ने सोचा कि सम्मान प्राप्त करने का सबसे सुगम उपाय यही है। चारों ने एक दीया लिया और जंगल में एक अँधेरी गुफा ढूँढ़कर उसमें जा बैठे। निर्णय किया कि मौन रहेंगे तो देखा-देखी सिद्धियाँ हमारे पास दौड़ी चली आएँगी, फिर सम्मान मिलने में क्या देरी है। थोड़ा वक्त ही गुजरा था कि दीये की लौ लपलपाने लगी। उनमें से एक बोला— “अरे कोई दीये में तेल तो डालो।" दूसरा तुरंत बोला – "बेवकूफ! बातें थोड़ी करनी थीं।" तीसरा कहने लगा- "तुम दोनों मंदबुद्धि हो । मेरी तरह चुप नहीं बैठ सकते ?" चौथा भी कहाँ शांत रहने वाला था, वह बोला –"सबके सब बोल रहे हो, सिर्फ मैं हूँ कि चुप बैठा हूँ।" मूढ़ ऐसे ही अनर्थ के प्रपंचों में समय गँवाते हैं; जबकि बुद्धिमान विवेक का उपयोग कर, जीवन को समर्थ व सुदृढ़ बनाते हैं ।

महाराणा प्रताप की जननी

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 महाराणा प्रताप को सब जानते हैं, पर उनकी जननी कौन थी, कहाँ से आई थी, यह जानकारी विरलों को ही है। पिता महाराणा उदयसिंह अरावली की दुर्गम घाटियों में भटक रहे थे । उन्होंने देखा कि एक किसान कन्या सिर पर बड़ी टोकरी लिए आ रही है। उसमें रोटी, दाल, खेती के औजार आदि थे। दूसरे हाथ से सात-आठ बछड़े एक ही रस्सी से पकड़े थी। चेहरे पर अनूठा तेज था। उसने पास आकर महाराणा को इस स्थिति में देखा तो साथ चलने को कहा। पहाड़ियों के बीच उसका घर था। किसान ने अपनी पुत्री के साथ आए राजा को पहचान लिया। पानी पिलाया, रोटी खिलाई। तब तक महाराणा, जो अब तक अविवाहित थे, किसान से उनकी पुत्री माँग चुके थे। देख चुके थे कि वह सिंहनी के समान है। उसकी कोख से सिंह ही पैदा होगा। किसान को जब बताया गया तो उसने कहा – “मेरी क्या हैसियत – आप कहाँ, हम कहाँ!" पर - - महाराणा ने उसे समझा कर विवाह कर लिया। रानी जैसी सुयोग्य सहायक व ऊर्जा की स्रोत पाकर दूने उत्साह से उन्होंने अरावली पर्वतश्रेणियों के बीच उदयपुर नगर की नींव डाली और राज्य को सुव्यवस्थित किया। इस रानी की कोख से ही नररत्न महाराणा प्रताप जन्मे थे। रानी ने बड़े मन से उन्हें

एकता

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 एक बार किसी क्षेत्र में भयंकर सूखा पड़ा। एक परिवार के सदस्यों ने किसी अन्य क्षेत्र में जाने के लिए आवश्यक सामान बाँधा और निकल पड़े। मार्ग में वे पेड़ के नीचे विश्राम करने के लिए रुके। परिवार के मुखिया ने अपने तीन लड़कों को तीन विभिन्न कार्यों के लिए भेजा। एक पानी, दूसरा ईंधन और तीसरा अग्नि लेकर लौटा। तत्काल चूल्हा जलाया गया। पकाने हेतु पेड़ पर चढ़कर जो भी मिल जाए, वह लाने का निर्णय किया गया। उनकी गतिविधि को पेड़ पर चढ़ा एक देव देख रहा था। उसने उनकी एकता को देखकर उनसे कहा – “इस पेड़ की जड़ में अशरफियों का घड़ा गड़ा है, उसे ले लो और सुख से रहो।" परिवार ने देव की आज्ञा का पालन किया और सुखपूर्वक घर लौट गए। उनके पड़ोसियों को घटना का पता चला तो उन्होंने भी ऐसा ही नाटक करने का प्रयत्न किया, परंतु उनके तीनों लड़के अपने-अपने कार्यों को करने के स्थान पर आपस में ही लड़ने लग गए। देव का आशीर्वाद पाने के स्थान पर वे उसके कोप के भागी बने और जो था, उसे भी गँवा बैठे। एकता ही सफलता का सूत्र है ।

अहंकार

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 राजा जनक ने शास्त्रों में पढ़ा कि घोड़े की रकाब में एक पाँव रखने से लेकर दूसरा पाँव रखने में जितना समय लगता है, आत्मज्ञान उतने ही समय में संभव है। राजा जनक में आत्मज्ञान प्राप्त करने की उत्कट अभिलाषा थी, सो उन्होंने राज्य के समस्त ज्ञानीजनों को बुलाया और उनसे कहा- "यदि यह शास्त्रवचन सत्य है तो मुझे भी आत्मज्ञान की अनुभूति ऐसे ही करवाइए।" राजा का अनुरोध सुनकर पंडितजन घबराए और बोले – “राजन्! हमने तो आत्मज्ञान के विषय में पढ़ा मात्र है, उसकी अनुभूति कैसे हो या कैसे कराई जाए- इसके विषय में हम कुछ नहीं जानते।" उनकी अनभिज्ञता को जानकर राजा जनक को क्रोध आया और उन्होंने सभी को कारावास में डालने का आदेश दिया। राज्य के समस्त पंडितों के कारावास में डाले जाने का समाचार सुनकर महर्षि अष्टावक्र, राजा जनक के पास पहुँचे और उनसे कहा- “राजन् ! इन विद्वानों को मुक्त कर दो, शास्त्रवचन को सत्य मैं सिद्ध करूँगा।" इसके उपरांत अष्टावक्र, जनक को घोड़े पर लेकर नगर से दूर चले। एकांत में पहुँचने पर उन्होंने जनक से अपना एक पाँव घोड़े की एक रकाब में रखने को कहा। उनके पैर रखते ही अष्टावक्र ने राज

अवसर का सदुपयोग

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 एक महात्मा जी ने एक निर्धन व्यक्ति की सेवा से प्रसन्न होकर उसे एक पारस पत्थर दिया और बोले - "इससे चाहे जितना लोहा, सोना बना लेना । मैं सप्ताह भर बाद लौटकर इसे वापस ले लूँगा।" वह व्यक्ति बहुत खुश हुआ। उसने बाजार जाकर लोहे का भाव पूछा तो पता चला कि लोहा सौ रुपये कुंतल बिक रहा है। उस व्यक्ति ने पूछा कि क्या भविष्य में लोहा सस्ता होने की उम्मीद है तो दुकानदार ने उत्तर 'हाँ' में दिया । यह सुनकर वह व्यक्ति यह सोचकर घर लौट आया कि लोहा सस्ता होने पर खरीदूँगा। दो दिन छोड़कर वह फिर बाजार गया, लेकिन लोहा अभी भी उस भाव पर बिक रहा था । वह फिर घर लौट आया। सप्ताह पूरा होने से पहले उसने यह भाग- -दौड़ दो-तीन बार की, परंतु बिना लोहा खरीदे ही समय गुजार दिया। महात्मा जी लौटे तो उस व्यक्ति की आर्थिक स्थिति यथावत् देखकर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। पूछने पर उन्हें सारा विवरण ज्ञात हुआ तो वे बोले- "अरे मूर्ख! लोहा चाहे कितना भी महँगा होता, परंतु सोने से तो कई गुना सस्ता होता । यदि तू प्रतिदिन कुंतल भर लोहा भी सोने में बदल रहा होता तो आज सात कुंतल सोने का मालिक होता, परंतु अपने अविवेक के कार

तेप्सुगन दोको कनाई युग के प्रसिद्ध झेन संत

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तेप्सुगन दोको कनाई युग के प्रसिद्ध झेन संत हुए हैं। तेरह वर्ष की छोटी आयु में हीउ न्होंने बौद्ध धर्म की दीक्षा ग्रहण कर ली और जन-जन तक भगवान बुद्ध की शिक्षाओं को पहुँचाने का बीड़ा उठाया। शीघ्र ही उन्हें यह ज्ञान हो गया कि समाज के हर वर्ग तक बौद्ध धर्म को पहुँचाने हेतु धर्मसूत्रों का प्रकाशन स्थानीय भाषा में करना होगा। तेत्सुगन ने प्रण किया कि वे जापान के हर गाँव, हर नगर में भिक्षाटन कर अपने संकल्प की पूर्ति के लिए जरूरी धन का उपार्जन करेंगे। दस वर्षों के अबाध परिश्रम के बाद इस महती कार्य के आवश्यकतानुसार पूँजी एकत्र हो पाई। ग्रंथ का प्रकाशन अभी आरंभ हुआ ही था कि ऊजी नदी में भयंकर बाढ़ आ गई और हजारों बेघर हो गए। दया वा प्रेम की मूर्ति, संत तेप्सुगन ने समय गँवाए बिना सारा धन जरूरतमंदों में बाँट दिया और पुनः देशाटन पर निकल पड़े। कई वर्षों के प्रयास और धनसंग्रह के उपरांत प्रकाशन प्रारंभ हुआ, किंतु उसी वर्ष जापान को महामारी ने आ घेरा सहयोगियों के घनघोर विरोध के बावजूद तेप्सुगन ने एकत्रित धन पुनः पीड़ितों में बाँट दिया । कहते हैं कि उसके पश्चात उन्हें बीस वर्ष और लगे पर अंततः अपना शरीर छोड़

छठ पूजा- आस्था का महापर्व

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  उगते हुए  सूर्य को सब प्रणाम करतें है, अस्त होते हुए सूर्य को कौन पूजता है! परंतु पूर्वांचल संस्कृति में अस्त होते हुए सूर्य की भी पूजा होती है, ऐसा माना जाता है कि सूर्य भगवान ही एक मात्र ऐसे भगवान है जिनके हम सजीव दर्शन कर सकतें है, और जिनके कारण हम सब जीवित है , हम सबका अस्तित्व है और हम सबको यह चाहिए कि हम सब उनके प्रति कृतज्ञ रहें। छठ पूजा इसी कृतज्ञता को व्यक्त करने का माध्यम है। छठ पूजा का आरंभ   एक कथा के अनुसार प्रथम देवासुर संग्राम में जब असुरों के हाथों देवता हार गये थे , तब देव माता अदिति ने तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति के लिए देवारण्य के देव सूर्य मंदिर में छठी मैया की आराधना की थी । तब प्रसन्न होकर छठी मैया ने उन्हें सर्वगुण संपन्न तेजस्वी पुत्र होने का वरदान दिया था । इसके बाद अदिति के पुत्र हुए त्रिदेव रूप आदित्य भगवान , जिन्होंने असुरों पर देवताओं को विजय दिलायी । कहा जाता हैं कि उसी समय से देव सेना षष्ठी देवी के नाम पर इस धाम का नाम देव हो गया और छठ का चलन भी शुरू हो गय