बापू के कम कपडे में रहने की जिद (संस्मरण)

सन् 1916 की बात है। नवाबों की नगरी लखनऊ में कांग्रेस का अधिवेशन हो रहा था। बापू भी उस अधिवेशन में आये थे। वहां उन्हें राज कुमार शुक्ल मिले और उन्होंने बिहार के चंपारण में रहने वाले किसानो का कष्ट उन्हें बताया। यह सब कष्ट सुन कर उनसे रहा न गया। वे और कस्तूरबा, चंपारण के तिहरवा गांव पहुंच गए। जब कस्तूरबा वहां पहुंची तो उन्होंने देखा वहां जितनी भी औरतें थी , वे सभी गंदे कपड़े पहने हुई थी। उन्होंने गाँव की सभी औरतों को इकठ्ठा किया और समझाने लगी कि गंदे कपड़े पहनने से बहुत सी बीमारियां होती है इसलिए सभी को स्वच्छ रहना चाहिए और अपने आस पास के वातावरण को भी साफ रखना चाहिए।
इस बात पर एक गरीब औरत,  जिसके कपड़े बहुत ही गंदे थे और जो एक किसान की पत्नी थी उठी और उन्हें अपनी छोटी सी झोपडी में ले कर गयी और बताने लगी - आप स्वयं ही देख लीजिये मेरे घर में कुछ भी नही है, केवल मेरे देह पर यही एक साड़ी है। आप स्वयं ही बताइये मै स्नान के समय क्या धारण कर के साड़ी साफ करूँ और क्या अपने वस्त्र साफ रखूँ? आप बापू जी से कह कर एक साड़ी दिलवा दें तो फिर मैं रोज़ अपने वस्त्र साफ रखूँ।
      कस्तूरबा ने यह सब घटना और स्थिति बापू को बताई। बापू पर इसका गहरा प्रभाव पड़ा। उन्होंने मनन किया और निष्कर्ष निकाला, ऐसे तो देश में बहुत सी बहनें होंगी और इन सभी के पास तन ढंकने तक के लिए कपड़े नही है , तो फिर मैं क्यों धोती, कुर्ता और कपड़े पहने लगा ?  जब हमारे लाखों बहनोँ की ग़रीबी के कारण तन तक ढंकने के कपड़े नही होते, तो मुझे इतने कपड़े पहनने का क्या हक़ है?
उसी दिन से बापू ने केवल लंगोटी पहन कर तन ढकने की प्रतिज्ञा कर ली थी।
   

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