सम्मुख

इन प्रकाश से डर लगता है,
कहीं ये सूखा न कर दे।
संसार के बन्धनों को तोडता है,
कहीं ये बदनाम न कर दे।
आत्मीयता का मोह बाधे रखता है,
कहीं ये अकेला न कर दे।
डर से डर लगता है,
कहीं ये भयानक न बना दे।
अब अपनों का हाथ भी,
दूसरो का साथ लगता है,
कहीं ये हमसे दूर न हो जाए।
                           -विकास पाण्डेय                            




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