बेटी

कब तक बलि चढती रहेगी ,
धधकती ज्वालाओ में झुलसती रहेगी ,
यंत्रो की खोज में मिटती रहेगी ,
हिंसा की धुंध में खोती रहेगी ।

वाह्य सौंदर्य देखने की चाह में ,
गुमशुदा हो गयी वो राह में ,
गहन अन्धकार में पीड़ा सहती ,
सिसकिया लेते हुए ,सरिता की तरह ,
पिता के हर्ष की, मंद मुस्कान है बेटी,
माँ की दीन हीन परिस्थितियों का गान है बेटी ।

वो नन्ही गुलशन को महकाने ,
साहचर्य बन अली , उपवन को सजाने,
गुल से गुलशन बनने की राह में थी ,
हाय! किन्तु उसे न पता था ,
आखें खुलने से पहले सो जायेगी बेटी ।

है सत्य यह ,किन्तु न मानता संसार ,
उसी से है सृष्ठी, ये सृष्ठी उसी की ,
न होती गर श्रद्धा तो मनु की सन्तान न होती ,
वो ओस की बुँदे है ,खुशियों की मोती ।

यदि कल है बेटा, तो आज है बेटी,
दो कुलों की लाज है बेटी ।

                                  -शिल्पी पाण्डेय 'रंजन'







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