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तारा

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तार तू तार क्यों है? मन का एक सितारा क्योंहै? सोते जब सब, तू जागता क्यों है? दिन की परछाइयों से, भागता क्यों है? चाँद में दाग है, पर तू तो बेदाग है?                       -विकास पाण्डेय

डेवलेपमेंट!

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देश में डेवलेपमेंट हो रहा है, अमीरों का काम अर्जेंट हो रहा है, गरीब बेचारा साइलेंट हो रहा है, देश बेचने का एग्रीमेंट हो रहा है। चमचा अपनी जगह परमामेंट हो रहा है, ईमानदार बेचारा सस्पेंट हो रहा है, बच्चा बाप से इंटेलिजेंट हो रहा है, घर घर पार्लियामेंट हो रहा है। कार्यालय रेस्टोरेंट हो रहा है, रिश्वत का काम हैण्ड टू हैण्ड हो रहा है, नेता, सभा समाप्ति पर प्रजेंट हो रहा है, क्यों! क्यों की देश में डेवलपमेंट हो रहा है।

आशा की आस

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जाता हूँ मन्दिर बिन उम्मीदों के साथ, कुछ नई उम्मीद पा सकूं। इस जीवन की नईया का, पार पा सकूं। जा सकूं उस रस्ते पे, जो तेरा हो। जहाँ नई उम्मीदों का, बसेरा हो। इस पथ भव सागर में, तेरा ही सहारा हो। जो भी पाऊ, वो सब तेरा हो तेरी अनुकम्पा का , कैसे बखान करूँ। जीऊ तेरे वायु पे, जो मेरा सहारा हो, किससे किसकी, करूं उपमा ? किससे इस दया का, बखान करूं? जो भी करूं उसमे, तेरा ही गुणगान करूं। एक प्रार्थना है आपसे, उस प्रकृति के साथ से, निराशा की आस पे, आशा की आस देना। दूर हो जो सबसे, उसे अपना साथ देना।                       -विकास पाण्डेय

बैठे रह गये

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तरुवर की छांव, शांति की तलाश में, हम बैठे रह गये। वो आये मुस्कुराये और , चलते रह गये। दुनिया से बेखबर, किसी की आस में, हम गंगा की भांति, बहते रह गये। वो आये मुस्कुराये और , चलते रह गये। निर्द्वन्द चिंता हीन हम, खो गये कही, उनकी यादो में , आहें भरते रह गये। वो आये मुस्कुराये और , चलते रह गये। भावना से भरी, इस ह्रदय में, हम कल्पना के तार में, बुनते रह गये। वो आये मुस्कुराये और, चलते रह गये। तरुवर की छांव, शांति की तलाश में, हम बैठे रह गये।  काटों से भरी,  इस डगर में, हम खुशियों के फूल , बस चुनते रह गये। वो आये मुस्कुराये और, चलते रह गये।

जिंदगी सिर्फ़ जीने का नाम नही

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जिंदगी सिर्फ जीने का नाम नही, कुछ कर दिखाने का है । शूलो भरे जहाँ में पैर डगमगाने का नही, वरन मंजिल पाने का है। जिंदगी सिर्फ जीने का नाम नही , कुछ कर दिखाने का है। निज स्वार्थ में हम समय गवाए, धन मुद्रा की चाह में, भ्रमण करे यही रट लगाये, हम राह में, देश के लिए भी, कुछ समय बिताने का है। जिंदगी सिर्फ जीने का नाम नही , कुछ कर दिखाने का है । समय की मार से, कोई बच न पाया। किसी को पल में हंसाया, और किसी को रुलाया। रावण ने भी इस जहाँ में, बहुत सारा धन कमाया। काल बन कर हनुमान ने , सोने की लंका जलाया । इसलिए ! सम्हाल जाओ! हे प्यारो ! नही व्यर्थ समय गवाने का है। जिंदगी सिर्फ जीने का नाम नही , कुछ कर दिखाने का है।

जय विश्वास

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आखों में ऊँचे सपने,        दिल में संघर्ष है अपने, मिलकर विश्वास बढ़ा,        जो उन रास्तो पे चल चुके है, जो कुछ बन चुके है,        अब लक्ष्य की सीमा तोड दी है, अब वहाँ तक चलूंगा,        जहा तक लक्ष्य की अनन्तता हो।                            - जय विश्वास                             -विकास पाण्डेय

कलयुग

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कलयुग के इस भव सागर को, कैसे कोई पार करे ? कोई दैवीय शक्ति मिले, जो इन सब से उध्दार करे। ह्रदय की वेदना बोली, लहू बन इन लोचनों में। घनघोर इस अंधकार में, दिखे न कोई एक किरण। हवा देश की बदल गयी है, कैसे कोई सांस भरे! कोई दैवीय शक्ति मिले , जो इन सब से उध्दार करे माया के इस मोहक वन की, क्या हम कहें कहानी ! घूम रहे सिर पर लिए , विश्व अभिशाप की निशानी । टिक सके न एक पल मित्र पुत्र, माता से नाता तोड़ चले । कलयुग के इस भव सागर को, कैसे कोई पार करे ! कोई दैवीय शक्ति मिले , जो इन सब से उध्दार करे । वासना को ही सुख मान जिसने बैठा है, काल ने भी उसी की आज गर्दन ऐठा है। अब उथला सरिता का प्रवाह कैसे नौका पार करे, कोई दैवीय शक्ति मिले जो इन सब से उध्दार करे।

मानवता ह्यास

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क्या नही देखता कोई ? उन दुर्बल शरीर को। उन दीन मजबूर अमानवीय तस्वीर को, ह्यास किया है मानव का, अपनी मानवता का। ऐ कुटील ह्रदय ! अब सम्हल जा, नही दूर वो दिन जब , तू पायेगा वो पल, तब सम्हल आयेगी, वो कृत रहित अक्ल। एक जीते हुए अनुभव को, नाहक दिशा दिखाते हो, अपने ह्रदय से पूछ, ग्लानि नही होती ? उन झुर्रियो से, बहलाती आत्मीयता भी नही होती ?                                    -विकास पाण्डेय

तू और मैं

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मेरे आँखो में ख्वाब है जितने, तेरे दिल में राग है उतने।           तू जो पहचाने क्या है तू,           अपने आप में वाह है तू। मेरे आँखो में मंजिल जितने, तेरे दिल में राग है उतने।           क्या पाया है आज तक तूने,           खुद को पाया आज है मैंने। अकेले वन में आग लगाई, सफलता को हार से बनाई।         मेरे पनघट में निर्मलता जितनी,         तेरे मन में चंचलता उतनी। इच्छा है तेरे सहारे, आस्था है तेरे किनारे।       उम्मीदों का साया है तू,       धूप में छाया है तू।                        

सम्मुख

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इन प्रकाश से डर लगता है, कहीं ये सूखा न कर दे। संसार के बन्धनों को तोडता है, कहीं ये बदनाम न कर दे। आत्मीयता का मोह बाधे रखता है, कहीं ये अकेला न कर दे। डर से डर लगता है, कहीं ये भयानक न बना दे। अब अपनों का हाथ भी, दूसरो का साथ लगता है, कहीं ये हमसे दूर न हो जाए।                            -विकास पाण्डेय                            

माँ धीरज धरो

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धरा घीरज धरो, जल्द ही मनुष्य सुधरेंगे, बस एक विपत्ति के बाद, तू जीतेगी हम हारेंगे। धरा धीरज धरो, जल्द ही मानवता आएगी, बस एक क्रूरता के बाद, तेरे ममता की जीत होगी, हमारे हठ की हार। करुणा ,दया ,सहायता समझेंगे, असहाय होने के बाद, तब पाएंगे तेरा साथ, जब जीत होगी सत्य की, कई झूठ के बाद। धरा घीरज धरो, जल्द ही मनुष्य सुधरेंगे, बस एक विपत्ति के बाद, तू जीतेगी हम हारेंगे।

मित्र

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जब कभी मुश्किलो में था ,उसी ने राह दिखलाया । कोई उलझन जो आई ,उसने ही सुलझाया। वह अमूल्य श्वेत मोती, शिल्प की दिव्य ज्योति। दोस्त के रूप में ,मैंने जिसको पाया। वह ध्यान रखता मेरा ,हर छोटी बड़ी ख़ुशी का। वह भूल जाता सारा गम, खाया जो कभी धोखा। देता साथ मेरा ,वो हर भले बुरे समय। कभी पान कर लू विष, तो बन जाये अमृतमय। कभी डॉटता ,तो लगता है कोई अपना। कभी जो देता कोई प्रेरणा ,तो लगता मधुर सपना। करू मैं शुक्रिय उस ईश का,दिया जो ऐसा मीत। पढूँ तो लगता कविता, गाऊं तो जैसे गीत।                                                 - शिल्पी पाण्डेय 'रंजन'              

जीवन सुख दुःख

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जीवन सुख दुःख का संगम है, नही किसी को बहुत अधिक, नही किसी को कम है। सागर में उठती लहरे जैसी , सुख दुःख का व्यूह भी है वैसे। न स्थिर है कुछ भी यहाँ , जीता जंग उसी ने , जिसने हँस कर दुःख सहा। है पार लगाने वाला , तो फिर क्या गम है। जीवन सुख दुःख का संगम है, नही किसी को बहुत अधिक , नही किसी को कम है। आओ मिलकर करे अथक प्रयास, न हो जीवन में कभी निराश, जो भी सीखा इस श्रृष्टि से, करें समर्पित हम उसे ख़ुशी से। चलता रहता यह चक्र , सारा नियति का नियम है। जीवन सुख दुःख का संगम है, नही किसी को बहुत अधिक, नही किसी को कम है ।                                      -   शिल्पी पाण्डेय 'रंजन'

हमने अक्सर ये सोचा

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हमने अक्सर ये सोचा ऐसा क्यों होता है ? इन्सान की जिंदगी में कितनी मुश्किलें आती, इन मुश्किल क्षणों में कोई साथ न देता है, हमने अक्सर ये सोचा ऐसा क्यों होता है। सुख में सब साथ निभाते है, दुःख में परे हो जाते है। देता जो साथ दुखो में, वो सच्चा इन्सान होता है। हमने अक्सर ये सोचा ऐसा क्यों होता है, इन मुश्किल क्षणों में कोई साथ न देता है। संघर्ष भरी इन रहो में, हम सफल नही हो पाते है। गैरों की क्या बात करे, अपने ही गैर हो जाते है। जो देता साथ हमारा , ईश्वर ही बस एक होता है। हमने अक्सर ये सोचा ऐसा क्यों होता है, इन मुश्किल क्षणों में कोई साथ न देता है।

निर्धन पल

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देखी है हमने ,गरीबी के निस्तब्ध पल, उन छोटी खुशियों के, ओझल छल। निर्द्वन्द के द्वंद में ,जीने की द्वन्द, चुन चुन कर ,खुशियों के जीने का छंद। वस्त्र न्यूनता ,भोज न्यूनता और पीड़ित हृदय कक्ष, पर समृद्ध वाचक था, वो निर्धनता दक्ष। चक्षुसह अन्याय हुआ ,सहन था ममत्व का , बलान्कुर हुआ न्याय का ,उपज था सम्मान का। सहिष्णुता सम, सार्थक प्रयास था, सम वर्तन, धन कर्तन ,अभाव था। ह्रदय सागर सम , स्नेहातुर था, भार कार्य ,कृति ,श्रम चातुर्य था।

माँ

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तुम कल्पना आराधना और साधना हो , माँ ह्रदय की वेदना की तान हो , तुम स्नेह की कोमल एहसास हो , तुम शिशुओ के शौर्य का अभिमान हो । तुम ममता की मूरत हो करुणा की खान हो , माँ हमारे जीवन की मधुर मुस्कान हो , तुम्हारा श्राप भी बन जाये हमारे लिए वरदान , दिव्या चिंतन से दिला देती सम्मान , तुम अधियारे में उजाले का आवाह्न हो , माँ ह्रदय की वेदना की तान हो । तुम में ईश्वर की असीम शक्ति है , मांग लेती प्राण यम से तुम में ऐसी भक्ति है , तुम निराशा के पथ पर आशा की दीप हो , तुम रुढियो बेड़ियो के तोड़ने की गीत हो । तुम सादगी शालीनता की मूर्ति हो , भर दे तू अधूरेपन को माँ ऐसी स्फूर्ति हो , कभी तुम दुःख की बदली तो , कभी सुख की मीत हो , तुम शान्ति और सदभावना की दूत हो । तुम कल्पना आराधना और साधना हो , माँ ह्रदय की वेदना की तान हो।                                    शिल्पी पाण्डेय 'रंजन'

बच्चा ही रहने दो

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मुझे बच्चा ही रहने दो , और मत सताओ , जीवन की जिम्मेदारियों के लिए , जिम्मेदार बनने के लिए , जीवन में इक बार ही आती है। ढेर सारी यादें दे जाती है , और मत डराओ भविष्य के लिए। बच्चा ही रहने दो , केवल आज के लिए । पलकों पे धूप को पड़ने दो , एक अनूठे से अनुभव के लिए। बच्चा ही रहने दो , दिल की सच्चाई के लिए । उलाहनाये मत दो , बदलने के लिए ।

पहचान

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बादलों से घिरे चाँद को ,बदलों ने सँवारा है , वो कितना सुन्दर चाँद ,आज सबका न्यारा है | पर्वत की उचाइयो में भी घन घटा का साथ है , अमावस होते हुए भी , जीवन भर का हाथ है | शीतल मंद हवाओं में , वो मीठी सी मुस्कान है , बदलों के ऊपर , आज भी वो मकान है | चन्द्र की कलाओं में , अनूठा सा अंदाज है , क्रिया का कर्तन देखो , पूर्णिमा ही राज है | मंद सी महक , कर्ता का व्यवहार है , समुद्र शक्ति का , आज भी सत्कार है | चन्द्र की चंचलता , पानी का मान है , तभी तो चन्दा , आज पानी में भी महान है|

याराना पल

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पहले खुद में हुआ करता था , आज सब में हूँ । पहले, सहायता क्या था ? , नही जनता था । आज जनता हूँ , क्या होता है ? दिल के रिश्ते सब से बन सकते है , बस इसी से केवल इसी से, पराये देश में अपने भी है , गुदगुदाने वाले अपने भी है , बस इसी से केवल इसी से , बिछुड़ना अब , दुसरों से अच्छा नही लगता । जब बिसरेंगे हम सब, कहेंगे , याद रहेंगी , तेरी दोस्ती , याराना , वो हम सब का घर , और घराना।

बेटी

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कब तक बलि चढती रहेगी , धधकती ज्वालाओ में झुलसती रहेगी , यंत्रो की खोज में मिटती रहेगी , हिंसा की धुंध में खोती रहेगी । वाह्य सौंदर्य देखने की चाह में , गुमशुदा हो गयी वो राह में , गहन अन्धकार में पीड़ा सहती , सिसकिया लेते हुए ,सरिता की तरह , पिता के हर्ष की, मंद मुस्कान है बेटी, माँ की दीन हीन परिस्थितियों का गान है बेटी । वो नन्ही गुलशन को महकाने , साहचर्य बन अली , उपवन को सजाने, गुल से गुलशन बनने की राह में थी , हाय! किन्तु उसे न पता था , आखें खुलने से पहले सो जायेगी बेटी । है सत्य यह ,किन्तु न मानता संसार , उसी से है सृष्ठी, ये सृष्ठी उसी की , न होती गर श्रद्धा तो मनु की सन्तान न होती , वो ओस की बुँदे है ,खुशियों की मोती । यदि कल है बेटा, तो आज है बेटी, दो कुलों की लाज है बेटी ।                                   -शिल्पी पाण्डेय 'रंजन'

फूलो को चुन

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दिन के उजाले में रात को न भूल , सुख के आशियाने में दुःख को न भूल । जीवन एक बगिया है जिसमे काँटे है और फूल, काँटे को छोड़ कर फूलो को चुन । जो देखा एक सपना कुछ कर गुजरने का , हौसलों के पर से असमान में उड़ने का , तो लग जा तू दौड़ में उन सपनों को बुन , काँटो को छोड़ कर फूलो को चुन । जो हृदय में गर है तेरा स्वाभिमान , जग जा तू नींद से भूल जा अभिमान। दिल है दिमाग भी इन दोनों को सुन , काँटो को छोड़ कर फूलो को चुन । क्यों सहता तू अनाचार अत्याचार , तू मनु की संतान है कुछ तो कर विचार , भर जीवन में नव रंग छोड़ दो नयी कोई धुन , काँटो को छोड़ कर फूलो को चुन।                                    - शिल्पी पाण्डेय ' रंजन '

दामिनी

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दामिनी तेरा दमन हुआ , हम सब को यही अब गम है। दमके अब तू नक्षत्र सा नभ में , हम सब की आखें नम है । क्या कसूर था तेरा, क्या लिया था तूने किसी का बस यही की तू एक लड़की थी या फिर, ये की तूने स्वतंत्र होकर जीना सीखा । बस यही की तू किसी क़ी धाती थी या फिर, तू बेटी का धर्म निभाती थी। तेरे नयनो के अश्रु चुभते है सीने में, मै भी एक बेटी हूँ सोच कर लगता है , अब क्या रखा है जीने में हम जिंदा है , इसलिये नही कि हमें जीना है, तेरे जस्बातो के दहकते अल्फाजो को हमे पीना है दामिनी तू निर्भया है ,वीरांगना है, यह सब देख सब की आहे कम है । दमके तू नक्षत्र सा नभ में , हम सब की आखे नम है ।                                      - शिल्पी पाण्डेय 'रंजन'

खुद के ईश को सामने लाओ

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जब खुद को अकेले पाओ खुद के ईश को सामने लाओ। तृष्णा का त्याग कराओ, प्रकृति की श्रेठता का मान दिलाओ । मैं तुम्ही से ,आप तुम्ही से, धन वैभव सब संसार तुम्ही से । सत्य का उजियारा फैलाओ, खुद के ईश को सामने लाओ। वेद तुम्ही से, वाद तुम्ही से, वेद भाव ,चित्त सब सार तुम्ही से, प्रकृति के करुणा का मान दिलाओ, खुद के ईश को सामने लाओ । धन भाव ,सत भाव ,सब भाव तुम्ही से, कृतियों का हर्षतार तुम्ही से, अखंड दीप का उजियारा फैलाओ, खुद के ईश को सामने लाओ ।

अपने सपने

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सपने भी अब अपने है , यू ही रस्ते कटने है , तेरे ही रहो पे रहने है, यू ही सपने कहने है। जो भी चाह आज है मैंने, वो कल के सपने अपने है। सोचा एक घर बनाऊंगा, एक नया इतिहास रचाउंगा, परछाईओ की छाव मे, एक नई आकृति बनाऊंगा। सुदूर गावं में अकेला हो, फिर भी मैं एक मेला हूँ । खुशियों की मुस्कान पे , अपने सपनो पे खेला हूँ।

जीवन नियम

राह किनारे एक अंधा याचक बैठा हुआ था। एक राहगीर ने दयावश उसे एक पचास का नोट दे दिया। इससे पूर्व कभी किसी ने अंधे को इतनी बड़ी मुद्रा दान में न दी थी सो उसे लगा कि किसी ने उसे कागज दे कर ठिठोली की है । वह उस नोट को फेकने ही जा रहा था कि वहीँ से गुजरते सज्जन ने उसे कागज का मूल्य समझाया और सहेज कर रखने को कहा। सत्य पता चलने पर याचक बड़ा प्रसन्न हुआ और मन ही मन उस दयालु व्यक्ति को धन्यवाद देने लगा। मनुष्य भी बिना बोध हुए उस याचक की तरह व्यवहार करता है और परमात्मा के दिए अनगिनत उपहारों का मूल्य नही समझ पाता । यदि हमें जो मिला है हम उसका समुचित उपयोग कर पाये तो हमे पता चलेगा की उसकी कोई कीमत नहीं, मनुष्य जीवन ही बहुमूल्य है। "कर्म तत्व प्रधान,                                               ब्रम्ह तत्व विधान , धर्म तत्व सहाय, वाक तत्व अटूट ।"

जीवन

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जीवन की दुश्वारियाँ ,                                    जीने की तैयारियाँ है  जीवन की कठिनाइयाँ, राह की परछाईया है जितना भी करूँ कर्म लेकिन , सामने कुछ न आता है अनुभव के जंग में,  हमेशा जीत जाता है सब कुछ हो कर भी , कुछ न समझता है ईश्वर की अनुकंपा , सदा बना रहता है अध्यात्म में जाऊ या भौतिकता में, कुछ न समझ आता है अध्यात्म से भौतिकता , नज़र नही आता है कृति को कृतार्थ करना , आज हमने जाना है अध्यात्म स्व को जानने का , बड़ा सा पैमाना है।

पितृ मन

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सागर की गहराइयो से भी गहरा  हूँ , लहरो की उफान से भी उँचा।  दिखता नहीँ ममता के ममत्व जैसा , जो सोच है मैं हूँ  नही वैसा।  करता नही मर्म इतना , पर तेरे बिना जी नही लगता।  गले लगा कभी, साथ खड़ा हो , स्नेह आतुर हूँ  मैं  देख  कितना।  दोस्त बन मेरा, निःशब्दता  समझ , मेरे मन की व्यथा  समझ।  नही बताता  ह्रदय व्यथा , कभी  माँ जैसा  भी  सम्मान  दे।  कर  दे कृतार्थ मुझे अपनी  समझ से, अपनी दुनिया  में भी मुझे मान दे।  ममतामयी  स्नेह  मुझे  नही आती , करता  हूँ  कृत्रिम पूर्णता तेरा।  तेरी ही उऋणता के लिए , फिर भी रहता हूँ  अधूरा।  लगना चाहता हूँ गले , चाहता हूँ वो  मान।  वो ह्रदय का कोना वो स्वप्न सलोना।  अखंड वैभव  का वो परिवेश , जो सदा  याद रहे और रखे।

प्रणाम का प्रमाण

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स्वागत है  भारत  जन  जन मे , स्वागत है  भारत  जन  जन मे, विहस  रही  है  साध  निराली , सुरभित तरु की डाली  डाली, कितना सुन्दर राग  भरा  है , भारत के इस नंदन  वन में .

सत्व

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सीखो उन  पंछियो से , जो लगातार  चलते रहते है , लक्ष्य की तलाश  में, खुद को अवसर देते है , लक्ष्य भी पीछे नही रहता उनसे।  अपने कर्तव्य के निर्वाह  में , मोहबंधित नही होते।  तू बस चलता चल , यही तेरा कर्तव्य है।  भूल मत तू परमात्मा का अंश मात्र है , जो उन पंछियो को  भी आत्मसात है।                                       

सोची उम्मीदें

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इन कंधो पर उम्मीदों का साया है , पर ईश्वर को तो  कुछ और  ही  भाया है।  होना कुछ  और था, हुआ कुछ और , यही तो सब ईश्वर की माया है।  आज फिर एक नई सुबह हुई, किरणे नई उम्मीदे लेकर आया है।  आज कुछ नया करने का मन बनाया है , सोंचा था जीवन को एक नई दिशा देंगे, सोच को नई उड़न देंगे, पर जीवन ने तो सदा झुकना सिखाया है।  मन  जीवन से विरक्तता को चाहता है , पर कर्म के घेरे ने ऐसा फँसाया  है , कि फिर उसी स्थान पर माया समय है।