दामिनी
हम सब को यही अब गम है।
दमके अब तू नक्षत्र सा नभ में,
हम सब की आखें नम है।
क्या कसूर था तेरा, क्या लिया था तूने किसी का,
बस यही की तू एक लड़की थी, या फिर,
ये की तूने स्वतंत्र होकर जीना सीखा।
बस यही की तू किसी क़ी धाती थी,या फिर,
तू बेटी का धर्म निभाती थी।
तेरे नयनों के अश्रु चुभते है सीने में,
मै भी एक बेटी हूँ सोच कर लगता है ,
अब क्या रखा है जीने में ?
हम जिंदा है , इसलिये नही कि हमें जीना है,
तेरे जज़बातों के दहकते अल्फाजो को हमें पीना है।
दामिनी तू निर्भया है, वीरांगना है,
यह सब देख सब की आहें कम है।
दमके तू नक्षत्र सा नभ में,
हम सब की आखें नम है।
- शिल्पी पाण्डेय
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें