संयुक्त परिवार का महत्व
अब तक समूचे इतिहास में हरेक संस्कृति में परिवार समाज की बुनियादी इकाई रहा है। लेकिन आज कई मायनों में यह इकाई संकट से घिरी लगती है। विकासित देशों में बदलती आर्थिक स्थितियों और उपभोग के नये ढांचों से ऐसे परिवारों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि हुई है, जहां पति-पत्नी दोनों काम करतें है, उनके पास अपने देखभाल करने के लिए और अपने पारिवारिक जीवन के लिए भी समय नहीं होता। अन्य सामाजिक ताकतों ने बड़े पैमानों पर विस्तृत परिवार, कार्यस्थल, आस पड़ोस और समाज से मिलने वाली सहायता में भी कमी करने में अपनी भूमिका निभाई है। विकासशील देशों में ऐसी प्रवृत्ति गरीबी, पर्यावरणीय दुर्दशा, पुरुष स्त्रियों के बीच बढ़ती असमानताओं और वैश्विक महामारियों के उदय होने की समस्याएं बहुत जटिल हो गयी है।
अपनी पुस्तक में आचार्य महाप्रज्ञ जी ने परिवार को एक राष्ट्र की बुनियाद के रूप में और व्यक्ति को एक कर्ता और विकास के लाभार्थी के रूप में पेश किया है। डॉ कलाम ने भी इस पुस्तक में अपना योगदान सशक्तिकरण, भागीदारी और किसी काम में सभी लोगों को सम्मलित करने पर जोर दिया है। परिवार समाज की एक बुनियादी इकाई है, और इसकी मजबूती अभिन्न है और समूचे विकास का केंद्र है।
मजबूत परिवार सामाजिक और आर्थिक विकाम में सुधार लाने के लिए किये गए समग्र प्रयास के केंद्र में होता है। यह स्थाई समुदायों की उत्पत्ति करता है और वैश्विक समृद्धि में बढ़ोत्तरी करता है। किसी व्यक्ति के लिए निश्चित रूप से मजबूत परिवार होने के कई लाभ हैं। एक परिवार इसके सदस्यों के लिए प्रत्येक स्थिति में सबसे बड़ा सहारा होता है, और कठिन समय में, उनके लिए एक सुरक्षा कवक का कार्य करता है। मजबूत परिवारों में, लोग अपेक्षाकृत स्वस्थ और प्रसन्न रहतें है और वे बेहतर ढंग से आपस में सामंजस्य बिठा लेते हैं।
सामाजिक विकास के सन्दर्भ में देखें तो, समूची सभ्यता की सामान्य व समग्र उन्नति में परिवार का महत्व अधिक है, क्योकि यह परिवार ही होता है, जिसमें नैतिकता के बुनियादी मूल्य जन्म लेतें है। यह परिवार ही है जिसमें सीखने की क्षमता आत्मविश्वास और सकारात्मक सामाजिक संवाद की आवश्यक क्षमताएं प्राप्त होती हैं। और यह मजबूत परिवार का आधार ही होता है कि जिसमें व्यक्ति समग्र रूप से समाज को अपना योगदान देने में सक्षम हो पातेँ हैं।
ऐतिहासिक रूप से, धर्म पारिवारिक सामंजस्य के सबसे महत्वपूर्ण कारकों में एक है। विवाह, तलाक, बच्चों के पालन-पोषण और उनमें डाले जाने वाले मूल्यों से सम्बंधित सभी क़ानून पारंपरिक रूप से धर्म से ही बनते हैं। किन्तु आज धर्म और परिवार के मध्य का सम्बन्ध संकट में है। सबसे पहले तो, अब परिवार के लिए पारंपरिक रूप से पुरुष सत्तात्मक ढांचें पर लोगों का विश्वास नहीं रहा और यह उचित भी है कि महिलाओं के उत्पीड़न, बच्चों के पालन पोषण की कड़ी प्रथाओं और पुरुष शक्ति को बचाकर रखने के पारिवारिक जीवन के इस ढांचें को अनुचित और अन्याय पूर्ण माना जाता है।
कई पश्चिमी देशों में पुरूष सत्तात्मक और अधिकारवादी ढांचें की असफलता ने एक विकल्प को बढ़ावा दिया है। अपने स्वरुप में अधिक उदार और धर्म निरपेक्ष इस विकल्प ने, महिलाओं को पारिवारिक निर्णयों में एक समान भूमिका निभाने का अवसर प्रदान किया है, और यह उचित भी है। लेकिन इसके साथ-साथ इस ढांचें ने बच्चों के लालन पालन में एक प्रकार की स्वतंत्रता के दरवाजे खोल कर, धार्मिक शिक्षाओं द्वारा प्रस्तुत की जाने वाली नैतिकता की मजबूत भावना को ख़ारिज कर दिया है। बच्चों के लालन-पालन में, इस स्वतंत्रता से अक्सर बच्चों में, आत्मसंतुष्टि के अलावा जीवन मूल्यों अथवा नैतिक निर्णय की कोई भी मजबूत भावना पनप ही नहीं पाती।
ऐसे मूल्यों पर एक सफल विश्व का निर्माण करने की कल्पना करना भी कठिन है। तो फिर आखिर इसका विकल्प क्या है ? माता-पिता के सम्बन्ध में और इसके साथ-साथ अभिभावक और बच्चों के बीच उनके अधिकारों व ज़िम्मेदारियों के संबन्ध में आपसी समझ को रेखांकित करके, उनमे समानता और भावनात्मक पारस्परिकता को सभी स्थापित करने की कोशिश करें।
और हमें यह भी महसूस करना होगा कि आज के समय में संयुक्त परिवार की भाषा लगातार बदल रही है, क्योकि आज एक संयुक्त परिवार के सदस्यों में मित्रों और पड़ोसियों को भी सम्मलित किया जा सकता है, क्यों की वे मोबाइल फ़ोन व अन्य इलेक्ट्रॉनिक उपकरण की सहायता से आपस में जुड़े होतें है। ऐसी स्थिति में एक संयुक्त परिवार प्रणाली में निश्चित रूप से यह स्वाभाविक क्षमता होती हैं कि वे कभी भी किसी भी प्रकार की समस्या उत्पन्न होने पर, उसका समाधान निकाल सके, जबकि न्यूक्लियर परिवारों में जहां समस्याओं का समाधान खोजने का तंत्र नदारद होता है, समस्याएं बहुत गंभीर बन जाती है। इसलिए मेरे विचार से सयुक्त परिवार प्रणाली विशेष रूप से भारत के सन्दर्भ में, बहुत अनुकूल है।
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