गीता में भगवान श्री कृष्ण द्वारा बताये गए सफलता के कारक

व्यक्ति के विकास में उसके व्यक्तित्व का महत्वपूर्ण योगदान होता है। जहां व्यक्तित्व विकास का सीधा उसके परिवार, समाज, परिवेश, पर्यावरण, रहन-सहन, खान-पान, दिनचर्या, भाषा, व्यवहार और उपलब्ध संसाधनों से होता है। वहीँ इन सबसे ऊपर उसके विकास में उसकी सोच दिशा दृष्टि एवं गति की महत्वपूर्ण भूमिका होती है जिसके परिणाम स्वरुप उसके जीवन की दिशा दृष्टि गति एवं सोच के साथ उसका समग्र जीवन ही बदल जाता है। जिसकी परिणिति व्यक्तित्व विकास के रूप में होती हैसामान्य व्यक्ति के व्यक्तित्व विकास की कसौटी उसकी सफलता होती है। असफ़ल व्यक्तियों के गुणों कार्यों एवम् विचारों को जहां हेय दृष्टि से देखा जाता है, वहीं सफल व्यक्ति का हर कथन, हर व्यवहार, हर कदम और हर कार्य अनुकरणीय बन जाता है। 
     अंततः सफल व्यक्ति की कसौटी उसके कार्य की वह परिणित है, जिससे उसके हित साधन के साथ ही समाज एवं राष्ट्र का भी विकास होता है जिससे वह राष्ट्र विश्व के लिए और समाज भावी पीढ़ी के व्यक्तित्व विकास को ऊर्जा व प्रेरणा देने में समर्थ हो वास्तव में व्यक्तित्व विकास की यही सार्थकता है। 

     भगवान श्री कृष्णा ने आज से 5000 वर्ष पूर्व अर्जुन को गीता का उपदेश देते हुए सफलता के पांच कारक बताये थे वह आज भी उतने ही महत्वपूर्ण है जितने उस समय थे। भगवान श्री कृष्ण ने गीता के अठारहवें अध्याय के चौदहवें श्लोक में कहा है -

पंचैतानि महाबाहो कारणानि निबोध मे।
साङ्ख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम ।।

     हे महाबाहो! संपूर्ण कर्मो की सिद्धि के ये पांच हेतु कर्मो को जिनको साख्यशास्त्र में कहा गया है, तू मुझ से भली भांति जान।

अधिष्ठानम् तथा करता करणं च पृथग्विधम् ।
विविधाश्च पृथक्चेष्ठा दैवं चैवात्र पंचमम् ।।

किसी भी कार्य की सफलता के लिए महत्वपूर्ण यह पांच कारक है-

1.अधिष्ठानम् - अर्थात् लक्ष्य । वह क्या बनना चाहता है। वह क्या पाना चाहता है। सफलता के लिए सबसे पहले उसे अपना लक्ष्य पक्का कर लेना चाहिए। जिस व्यक्ति का लक्ष्य निर्धारित होता है और वह उस लक्ष्य के लिए समर्पित हो कर कार्य करता है, उसे सफलता अवश्य मिलती है। 

2. कर्ता- यानी कार्यकर्ता अर्थात अपने निर्धारित लक्ष के प्राति समर्पित भाव से, लक्ष्य के अनुरूप सामर्थ्य साधना में अहर्निश रत रह कर कार्य करने वाला व्यक्ति अवश्य सफलता प्राप्त करता है। 

3. करणं च पृथग्विधम्- अर्थात उपकरणों या संसाधनों का महत्व है, जिसके माध्यम से लक्ष्य प्राप्ति होती है। उन संसाधनो की विविधता क्षमता व् गुणवत्ता पर ही सफलता निर्भर करती है। 

4. विविधाश्च पृथक्चेष्ठा- अर्थात विविध प्रकार के उपकरणों साधनों के उपयोग के साथ ही विविध प्रकार के प्रयत्न  भी सफलता के लिए आवश्यक होते है। क्योकि लक्ष्य प्राप्ति में अनेक प्रकार की प्रतिस्पर्धा होती है। यदि साधक के साधन दूसरे प्रतिस्पर्धी से कुछ अलग होंगे और उसमें कुछ भिन्न प्रकार से उनका प्रयोग किया होगा, तब ही उसका वैशिष्टय स्थापित होगा और वह अपने लक्ष्य में सफल होगा।

5. दैवं- सफलताबक पांचवा और अंतिम कारक दैव कृपा है। यह दैव कृपा जिस पर होती है, वह अपने लक्ष्य में सफल होता है। अर्थात साधक को अपनी सम्पूर्ण सामर्थ्य से अपने लक्ष्य की सफलता के लिए प्रयत्न करते हुए ईश्वर के प्रति भी कृतज्ञ  रहना चाहिए।

     महपुरुषों ने बहुत स्पष्ठ घोषणा करते हुए कहा है कि जिनमें यह 6 गुण होतें है, उनके ऊपर ही दैव कृपा होती है। वे 6 गुण इस प्रकार है-

उद्यम साहसम् धैर्यम् बुद्धिशक्तिपराक्रमः ।
षडेते यत्र वर्तन्ते तत्र देवो सहायकृत ।।

अर्थात जो साधक उद्यमशील, साहस, धैर्य, बुद्धिमान, शक्ति संपन्न तथा पराक्रमी है। अर्थात जो ईश्वर के भरोसे हाथ पर हाथ रखकर बैठने वाला न हो, स्वयं पराक्रम करता हो, उसकी देवता भी सहायता करतें है और वह सफलता प्राप्त करता है।

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