किस पर है सारा दारोमदार

हमारी दुनिया, स्पेस , समय, स्थूल, परिमाण, ऊर्जा और चेतना के
आपसी संबंधों का एक (Complicated Network) जटिल नेटवर्क है। भौतिकशास्त्री और चेतना का गहराई से अध्ययन करने वाले विद्वान थॉमस कैम्पबेल ने अपनी पुस्तक (My big theory of every things) माय बिग थ्योरी ऑफ़ एव्री थिंग्स में अपने विचार को प्रस्तुत किया कि हम ब्रह्माण्ड को एक विशालकाय मस्तिष्क के रूप में मान सकतें है। उनके अनुसार लम्बे समय में किसी व्यवस्था के बनाने की प्रक्रिया, विकास की एक  प्राकृतिक गति से प्रभावित  होती है, और वह सभी तरह के नेटवर्क के लिए एक ही होती है।

     चाहे वह internet हो चाहे वह मानव मष्तिष्क हो या सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड हो। इसलिए, हम मान लें कि एक व्यक्ति के रूप में हम अंदर ही अंदर एक दूसरे से जुडी अति विस्तृत जीवन सत्ता से निकले चेतना के अंश है, जिसमें मन, शरीर, परिवार, समुदाय, पर्यावरण, संस्कृति, आदि सभी कुछ समाहित है। सच यह है कि ऐसा कोई एक भी नहीं है, जिस पर सारा दारोमदार हो। यह संसार अनेक बौद्धिक और जटिल प्रणालियों से भरा है जो एक दूसरे से जुडी हुई है और एक दूसरे को प्रभावित करती है, और इनका कोई एक संचालन केंद्र नहीं है। 
     चलिये हम एक अर्थव्यवस्था का ही उदाहरण लेतें है। अर्थव्यवस्थाएं आवशयकता आपूर्ती के लिए बेहद जटिल व्यवस्था होती है, जिसका नियंत्रण किसी एक बिंदु पर केंद्रित नहीं रहता। हालाँकि इनके भी कुछ सामान्य से नियम होतें है, फिर भी अर्थव्यवस्था में गिरावट या उछाल के बारे में पहले से कुछ भी बता पाना बहुत मुश्किल होता है। यह एक भ्रम है कि किसी एक को यह तय करने की जिम्मेदारी सौप दी जाये कि किसी चीज का कब कहाँ, कैसे, कितना, किसके द्वारा उत्पादन किया जाये, और उसे किस भाव में बेचा जाये तो अर्थव्यवस्था बेहतर चलती है, और इस भ्रम ने दुनिया में लोगों की सेहत और दौलत को तबाही की हद तक नुकसान पहुँचाया है।
      अपने मानव शरीर को एक उदाहरण लेकर इस बात को समझें। आप कोई ऐसा दिमाग नहीं है, जो शरीर को चला रहा है और नही आप कोई शरीर है, जो hormones receptors यानि अभिग्राहकों को सक्रिय करके जीन समूह को संचालित कर रहें है। न ही आप शरीर में हार्मोन्स स्राव को प्रेरित करने वाले जीन को सक्रिय करके मस्तिष्क को संचालित करने वाले जीन समूह है। हालांकि आप इनमे से कोई भी नही है लेकिन आप इनमे से सभी कुछ हैं। मस्तिष्क और शरीर एक ही व्यवस्था के हिस्से हैं। अनुवांशिक सूत्रों के वाहक DNA के दसवें क्रोमोज़ोम पर स्थित एक जीन CYP17 कार्टिसाल नाम का एक हार्मोन्स बनता है, जो वस्तुतः मस्तिष्क के रवैये में बदलाव ला कर शरीर और मस्तिष्क का एकीकरण कर के रखता है। कार्टिसाल शरीर के प्रतिरक्षा तंत्र में दखल दे कर आँख, कान, और नाक की संवेदनशीलता में बदलाव लाता है। इससे कई शारीरिक क्रियाओं में परिवर्तन आता है। मनोवैज्ञानिक तनाव पर प्रक्रिया करते हुए मस्तिष्क, कार्टिसाल के स्राव को प्रेरित करता है।  खून में मिल कर रंगों में बहते हुए। कार्टिसाल प्रतिरक्षा तंत्र की प्रतिक्रिया करने की क्षमता को दबा देता है, जिससे सुशुप्तावस्था में पड़ा वायरस का संक्रमण भड़क उठता है या कोई नया संक्रमण शरीर को अपनी चपेट में ले लेता है। इसके भौतिक लक्षण ज़रूर हो सकतें है, लेकिन कारण मनोवैज्ञानिक होता है। मस्तिष्क किसी बीमारी का शिकार होता है, अल्कोहल या फिर मस्तिष्क के गुणधर्म बदल कर मनः स्थिति में बदलाव लाने वाले ऐसे ही किसी पदार्थ के सेवन से प्रभावित होता है, तो इसके कारण भौतिक होतें है और लक्षण मनोवैज्ञानिक। 
     Institute of human genetics के संस्थापक जयेश सेठ बतातें है कि बाहरी क्रिया कलापों को पूरी तरह सचेत हो कर या चैतन्य अवस्था के प्रति लापरवाह होकर इंसान के जींस को बिजली के स्विच की तरह खोल और बंद किया जा सकता है। कार्टिसाल के असर से जो जींस खुल जातें है वे फिर दूसरे जींस को भी जाग्रत कर देतें है, और ये जींस और दूसरे जींस को , इस तरह जीन्स के जाग्रत होने का सिलसिला आगे बढ़ता जाता है। दरअसल यह एक जटिल और पेंचदार व्यवस्था है। 
     बहुत सारे जीन्स जीवन भर सुषुप्त रह सकतें हैं, क्यों कि उनमें से बहुतों को जागने के लिए बाहरी कारकों और अपनी इच्छाशक्ति से काम करने की ज़रूरत होती है। इस तरह हम अपनी सर्वशक्ति मान समझने वाली जींस की दया के मोहताज़ नही बल्कि अक्सर देखने में यही आता है कि हमारी जींस ही हमारी मेहबानी की मोहताज़ होती है। अगर आप लापरवाही से जीतें है या फिर आप का काम तनावपूर्ण है, या आप का घर परिवार ठीक ढंग से नहीं चल रहा है, या आप बार बार खुद के साथ डरावना या बुरा होने की कल्पना करतें रहतें है, तो आप अपने शरीर में कार्टिसाल का स्तर बढ़ा लेंगें और कार्टिसाल जींस को हालात का मुकाबला करने या भाग कर बच निकलने के लिए जाग्रत करता फिरता है। इस तथ्य पर विवाद की गुंजाइश ही नहीं है कि हम जान बूझ कर बिखेरी गयी मुस्कराहट से, अपने मस्तिष्क के आनंद केंद्रों को ठीक वैसे ही सक्रिय कर सकतें है जैसे ख़ुशी देने वाले खयालों से होठों पर मुस्कान ला सकतें है। 
     हालाँकि मनुष्य मात्र के लिए ईश्वरीय इच्छा सर्व भौमिक है, फिर भी कुरान में इंसान की भी अलग और सक्रिय भूमिका बताई गयी है - "हमने इंसान को सही रास्ता दिखाया है और वह सही रास्ता चुनकर उसके लिए शुक्रगुज़ार होने या शुक्रगुज़ार न होने का रास्ते को अपनाने के लिए आज़ाद है।" 
     इसका अर्थ यह हुआ कि इंसान अच्छे और बुरे, भद्दे और सुन्दर के भेद की समझ और उनमें से एक को चुनने की क्षमता के दम पर अपनी नियति को समझ बूझ कर एक रूप देने में खुद सक्षम है। 
     दोस्तों, डॉ कलाम ने ख़ुद अपने शब्दों में कहा है "मै अपने खुद के अनुभव के आधार पर आपको बता सकता हूँ कि ईश्वर ने मेरे प्रति प्रेम और दया का भाव रखा है , लेकिन मैंने भी ज्यादा से ज्यादा काम कर के और कम से कम खर्च में अपना काम चला कर साधारण जीवन जिया है। हालाँकि मानव की इच्छा शक्ति का दायरा जितने भी दूसरे जीव जन्तुओ के बारे में पता है उन सब के मुकाबले कहीं ज्यादा बड़ा और व्यापक है और उसकी भूमिका भी ज्यादा सृजनात्मक है लेकिन उसका प्रभाव ईश्वर द्वारा उसके क्रियाकलापों और कर्मों के लिए निर्धारित क्षेत्रों में सीमित है।"
   इसलिए दोस्तों इंसान जीवन में जो कुछ करना चाहता है वह सारा कुछ नहीं कर सकता, बल्कि उसे ईश्वर की मर्जी के अनुसार चलना पड़ता है जो अपने आप में सब कुछ समेटे हुए है। 
    अक्सर ऐसा होता है कि कोई व्यक्ति कुछ करना चाहता है, लेकिन वह जितनी भी कोशिश कर ले नहीं कर नहीं पाता। इसका कारण यह नहीं हैं कि ईश्वर की इच्छाशक्ति उस व्यक्ति की अपनी इच्छा शक्ति का विरोध करती है और उसे वह करने से रोकती है जो वह करना चाहता है, बल्कि व्यक्ति के ज्ञान और उसकी क्षमता से परे कोई अज्ञात बाहरी कारक होता है जो उसके काम में बाधायें पैदा करता है और उसे अपने लक्ष्य तक पहुँचने से रोकता है। इसके विपरीत हमें बिना किसी स्पष्ठ कारण या योग्यता के आधार पर ख़ास काम और उद्देश्यों के लिए चुना गया। 
     व्यक्ति और समाज दोनों ही का लगातार ऐसी बाधाओं और सम्भावनाओं से आमना सामना होता रहता है। इस तथ्य केे मद्देनज़र कि प्रकृति के अधिकार क्षेत्र में कुछ भी बेवजह नहीं होता, और जो कुछ भी होता है उसके पीछे कोई न कोई वजह ज़रूर होती है, और यह भी कि हम सिर्फ संसार में वहीं तक देख पातें है जहाँ तक मनुष्य की नज़रे पहुँचती है, इसलिए हमें यह स्वीकार करने में परेशानी नही होनी चाहिये कि हर बार हमारी सभी आकांक्षाएं पूरी नही हो सकती, लेकिन अपनी चाहतों का हमारा अनुभव हमें हर बार किसी न किसी तरह जरूर बदल डालता है। 
     वह प्रक्रिया जिसके तहत बड़ी चीजे, भव्य स्वरुप और विशाल व्यवस्थाएं उन छोटी और अपेक्षाकृत सरल चीजो के बीच आपस में क्रियाएँ होने से उत्पन्न होती है। जिनमें खुद में भव्य स्वरुप और विशाल व्यवस्था के गुण नहीं नज़र आते उदभव या एमर्जेंस कहलाती है। मानव समूहों को अपने आप में पूरी तरह आज़ाद छोड़ दिया जाये, तो वह निरर्थक व्यवस्था के बजाए सहज ही एक व्यवस्था बनाने के लिए खुद ही नियम कायदों में ढल जायेंगे। शेयर बाजार या कोई भी दूसरा बाजार, बड़े विशाल पैमाने पर उदभव का उदाहरण है। अपने वृहद् स्वरुप में अपनी दुनिया भर में फैली कंपनियों के स्टॉक और शेयर के दामों के नियमन करता है, फिर भी उसमें पथ प्रदर्शक या अगुवाई करने वाला कोई नही होता। जहां कोई केंद्रीय योजना नहीं होती वहां सारे बाजार के काम काज पर काबू रखने वाली कोई एक हस्ती नहीं होती। 
     इसलिए , खुद को अपने इर्द गिर्द मौजूद लोगों का एक हिस्सा ही समझें, खुद को बड़ी तस्वीर का हिस्सा समझें और आप को जिंदगी में अपना आगे बढ़ने का रास्ता मिल जायेगा। स्वार्थ के लिए किये गए काम, अपनी सनक और मनमर्जी से की गयी हरकतें प्यार और नफरत के नाम पर भावनात्मकता को लेकर कोई ज्यादा आगे नही पहुँचता। इसके बजाए हम आपसी मेल जोल के साथ रहने की कोशिश करें और अपनी ऊर्जा सिर्फ अपने ही नहीं, अपने आस पास वालों के भी हालात सुधारने में लगाएं, जो ज़रूर एक सुन्दर भविष्य निकलकर सामने आएगा। 
     जिंदगी के सभी मोड़ दरअसल ऐसे मुकाम होतें है जहां ईश्वर की इच्छा, इंसान की इच्छा को पीछे छोड़ देती है। कभी हमें रोक दिया जाता है, तो कभी हमें आगे बढ़ने के लिए चुन लिया जाता है। ईश्वर पर है सारा दारोमदार!



टिप्पणियाँ