मन के रोग (कहानी)

बहुत समय पहले की बात है, किसी नगर के कोतवाल को पता चला कि
नगर में कोई महात्मा पधार रहें है, उन्होंने सोचा सत्संग प्राप्त किया जाये। जैसे ही उन्होंने रात की ड्यूटी समाप्त की, अपने सरकारी घोड़े पर सवार हो कर महात्मा के दर्शन के लिए चल पड़े।
     अपने पद और रौब का अहंकार उसके चेहरे से स्पष्ठ दिखाई दे रहा था। मार्ग में कोई मिलता, उससे पूछते कौन हो तुम ? कहाँ जा रहे हो ? इत्यादि, जरा जरा सी बात पर चाबुक फटकार कर राह चलते राहगीरों को डांट देते...... घोड़ा निरंतर आगे बड़ा जा रहा था।
     रास्ते में एक व्यक्ति आस पास के झाड़ और कंकड़ पत्थर साफ कर रहा था।  कोतवाली उसे भी डाँटते हुए बोला कौन हो तुम ? इस समय यहाँ क्या कर रहे हो ?  चलो हटो यहाँ से।  तनाव से वाणी कांप रही थी, परन्तु वह व्यक्ति उसकी बातें सुने बिना अपना काम करता रहा। कुछ जवाब नही दिया और न ही उसकी ओर देखा। कोतवाल उन्हें फिर क्रोध से फटकारते हुए बोला, जिह्वा में रोग लगा है क्या ? उत्तर क्यों नहीं देते ? ......... वह व्यक्ति हँस पड़ा  कोतवाल का चेहरा क्रोध से तमतमा गया। जोर से डांटते हुए बोला, बताओ महात्मा जी का स्थान किधर है ? जानते हो ? चलो आगे बढ़ कर बताओ।
     लेकिन इस बार वह व्यक्ति कुछ नहीं बोला, बस अपना काम करता रहा। कोतवाल ने बेंत फटकारी उसे लगा कि उस व्यक्ति ने उसे पहचाना नहीं, अतः फिर बोला मै कोतवाल हूँ, तुम इतना भी नहीं समझ पा रहे हो .........? लगता है, वृधावस्था के कारण तुम्हारी इन्द्रियां शिथिल और अस्वस्थ हो गयी है, तुम्हे कानों से सुनाई नही देता है, और न ही आखों से दिखाई देता है। ऐसा कहते कहते उस व्यक्ति को चार बेंत लगा दी, इतने पर भी वह व्यक्ति रास्ते के कंकड़ पत्थर साफ करता रहा। कोतवाल को लगा वह हँस रहा है, उसका परिहास कर रहा है इतने में कोतवाल ने उसे धक्का दे कर गिरा दिया .... वह व्यक्ति पत्थर पर जा गिरा। कोतवाल का घोड़ा आगे बढ़ गया
     आगे कोतवाल ने राहगीरों से रोबीले स्वर में पूछा- महत्मा जी का स्थान कहाँ किधर है ? उनमे से एक ने कहा -आप आगे निकल आये है, पीछे शायद आपका वो मिल जाएँ। 
     कोतवाल को आश्चर्य हुआ,  पूछा कि वही महात्मा है ? और उसने तुरंत घोड़ा वापस घुमाया। दूर से देखा तो कपड़ा फाड़ कर अपने सिर पर पट्टी पर बांध रहे थे। वास्तव में चोट लगने का उन्हें दुःख नहीं था। काम बाकी रह गया था, इस बात का दुःख था। कोतवाल उसके चरणों पर गिर गया, क्षमा मांगते हुए कहा - आप इतने बड़े महात्मा होकर सड़क के ककड़ पत्थर साफ कर कर रहें है! उन्होंने उत्तर दिया, मै ऐसे ऐसे छोटे - छोटे काम कर के मन को स्वस्थ रखता हूँ, मेरी समझ से ऐसा कार्य प्रत्येक व्यक्ति को करना चाहिए ..........
     लेकिन मनुष्य ने अपने चारों ओर क्रोध, अहंकार, लोभ आदि की कंटीली झाड़ियाँ उगा रखी है। जो उसके शरीर के स्वास्थ्य, उसके मन को पीड़ा पहुचाती हुई।  उसे अस्वस्थ और दुर्बल बन देतीं है, इन दुर्गुणों का नाश करने से मनुष्य का मन स्वस्थ हो जाता है, और शरीर सकारात्मक दिशा में काम करने के लिए प्रेरित होता है ...

     कोतवाल महत्मा की बात आश्चर्य चकित हो कर सुनता रहा। उसने बार- बार क्षमा मांगी जीवन में पहली बार उसने स्वयं को तनाव मुक्त अनुभव किया।

     वस्तुतः मनुष्य क्रोधादि दुर्गुणों के वाशीभूत हो कर अनेक मन के रोगों का शिकार हो जाता है। शारीरिक रोगों का निवारण तो औषधियों से संभव है, किन्तु मन के रोगों का शमन अहंकार, क्रोध आदि के त्याग से ही हो सकता है। जिसने इन दुर्गुणों को त्याग दिया, उसका मन स्वस्थ हो गया।

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