दया यज्ञ
एक गृहस्थ ने तीन यज्ञ किये जिनमें उसका सब धन खर्च हो गया। गरीबी से छूटने के लिए एक विद्वान् ने बताया कि तुम अपना यज्ञों का पुण्य
अमुक सेठ को बेच दो, वह तुम्हें धन दे देंगे।
वह व्यक्ति पुण्य बेचने चल दिया। रास्ते में एक जगह भोजन करने बैठा तो एक भूखी कुतिया वहाँ। बैठी मिली, जो बीमार भी थी चल फिर भी नहीं सकती थी। उसकी दशा देख कर गृहस्थ को दया और उसने अपनी रोटी कुतिया को खिला दी और खुद भूखा ही आगे चल दिया।
धर्मराज के यहाँ पहुँचा तो उनने कहा- तुम्हारे चार यज्ञ जमा है। जिसका पुण्य बेचना चाहते हो? गृहस्थ ने कहा- मैंने तो तीन ही यज्ञ किये थे, यह चौथा यज्ञ कैसा? धर्मराज ने कहा- यह दया-यज्ञ है। इसका पुण्य उन तीनों से बढ़कर है ।
गृहस्थ ने एक यज्ञ का पुण्य बेचा। उसमें जो धन मिला उससे दया- यज्ञ करने लगा। पीड़ितों की सहायता ही उसका प्रधान लक्ष बन गया। इसके पुण्य फल से उसने अपने लोक-परलोक दोनों सुधारे।
दया और उदारता से प्रेरित होकर किया हुआ परोपकार साधारण धर्म प्रक्रियाओं की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ है ।
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