अहंकार

 राजा जनक ने शास्त्रों में पढ़ा कि घोड़े की रकाब में एक पाँव रखने से


लेकर दूसरा पाँव रखने में जितना समय लगता है, आत्मज्ञान उतने ही समय में संभव है। राजा जनक में आत्मज्ञान प्राप्त करने की उत्कट अभिलाषा थी, सो उन्होंने राज्य के समस्त ज्ञानीजनों को बुलाया और उनसे कहा- "यदि यह शास्त्रवचन सत्य है तो मुझे भी आत्मज्ञान की अनुभूति ऐसे ही करवाइए।" राजा का अनुरोध सुनकर पंडितजन घबराए और बोले – “राजन्! हमने तो आत्मज्ञान के विषय में पढ़ा मात्र है, उसकी अनुभूति कैसे हो या कैसे कराई जाए- इसके विषय में हम कुछ नहीं जानते।" उनकी अनभिज्ञता को जानकर राजा जनक को क्रोध आया और उन्होंने सभी को कारावास में डालने का आदेश दिया।


राज्य के समस्त पंडितों के कारावास में डाले जाने का समाचार सुनकर महर्षि अष्टावक्र, राजा जनक के पास पहुँचे और उनसे कहा- “राजन् ! इन विद्वानों को मुक्त कर दो, शास्त्रवचन को सत्य मैं सिद्ध करूँगा।" इसके उपरांत अष्टावक्र, जनक को घोड़े पर लेकर नगर से दूर चले। एकांत में पहुँचने पर उन्होंने जनक से अपना एक पाँव घोड़े की एक रकाब में रखने को कहा। उनके पैर रखते ही अष्टावक्र ने राजा जनक से पूछा- "जनक! अब यह बताओ कि तुमने शास्त्र में क्या पढ़ा ?" राजा जनक ने पढ़े हुए वचन दोहरा दिए। अष्टावक्र ने पुन: पूछा - 'इतना सत्य है, पर इसके आगे क्या लिखा था ?" राजा जनक बोले – "लिखा था कि इसके लिए पात्रता होनी चाहिए।" महर्षि अष्टावक्र बोले - "तो क्या तुमने पात्रता अर्जित कर ली ?" यह सुनते ही राजा जनक को बोध हुआ कि पात्रता तो पूर्ण समर्पण - अहंकार के विगलन से ही संभव है और जैसे ही वे अहंकार को - मिटाकर अष्टावक्र के सम्मुख अवनत् हुए, उन्हें आत्मबोध हो गया। कहते हैं कि राजा जनक उसी अवस्था में तीन दिन तक खड़े रहे और उन्हें जब होश आया तो उन्हें ज्ञात हुआ कि उनकी चेतना व्यक्तित्व के सर्वोच्च शिखर पर पहुँच गई। पात्रता विकसित होने और अहंकार के नष्ट होने पर ही ज्ञान की प्राप्ति होती है।

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