धन की तीन गतियाँ

नीति शतक ग्रंथ के लेखक राजा भत्रहरी ने दान की तीन गतियाँ बताई है, जो आज भी प्रासंगिक बनी हुई हैं।

     धन की पहली गति बताई गयी है- धन का दान करना क्योकि दान एक परोपकारी पुण्यकार्य है, और परोपकार से बढ़कर कोई पुण्य नहीं होता। दान से जो शुभ कर्म संपन्न होतें है, उसका शुभ फल दान दाता को मिलता है। यह दान, वाह वाही और यश प्राप्ति के करने की भावना से न किया जाये तो और अधिक श्रेष्ठ कर्म हो जाता है। इसलिए भारतीय संस्कृति में गुप्त दान की प्रसंशा की गयी है, क्योकि गुप्त दान से अहंकार पैदा नही होता है।
     धन की दूसरी गति बताई गयी है- धन का उपयोग होना, वास्तव में धन तभी धन सिद्ध होता है जब उसे गति दी जाये, यानि उपयोग में लिया जाये। जमाखोरी करके धन इकठ्ठा करना, इसके उपयोग को रोकना है। ऐसा धन व्यर्थ पड़ा रहता है, उसमे गति न होने से वृद्धि नहीं होती है। धन की तीसरी गति बताई गयी है – धन का नाश होना। जो धन आप के काम न आये, वह आप के लिए नष्ट होने के समान ही सिद्ध होगा। धन की यह तीसरी गति , धन की गति न होकर दुर्गति ही मानी जाएगी। आप जिंदगी कर धन जोड़ते रहें, इकठ्ठा करतें रहें, और उसका उपयोग न करें और एक दिन मौत आपकी रवानगी डाल दे, तो वह संचित धन आपके क्या काम आया ? और जो चीज़ काम न आ सके उसे नष्ट ही माना जायेगा।
      एक बहुत बड़े धनवान व्यवसायी के यहाँ चोरी हो गयी। चोर लगभग चार लाख के जेवर औए सात लाख रूपये उड़ा ले गया। सारा परिवार शोकाकुल था, और गृहस्वामी पति-पत्नी तो मारे शोक के बदहवास हो गये थे। पुलिस पूछताछ और जाँच पड़ताल की जा चुकी थी, तभी उसके कुलगुरु का अपने शिष्यों के साथ आगमन हुआ। शोकाकुल होते हुए भी परिवार ने उनका स्वागत सत्कार कर उन्हें सम्मान पूर्वक आसन पर आसीन किया। वातावरण में उदासी और सबके उतरे हुए चेहरे देख कर कुलगुरु बोले- क्या बात है ? आप सब ऐसे शोकाकुल क्यों हैं ? गृहस्वामी ने चोरी की घटना के बारे बताया तो कुलगुरु बोले क्या क्या ले गया चोर ? उन्हें बताया गया चोर इतना जेवर और इतना नगद रुपया ले गया, तो कुलगुरु बोले – जेवर का तो घर में होना ठीक था, पर नकद सात लाख रूपये ? इतने रूपये कैसे और क्यों इकठ्ठा कर रखे थे ? गृहस्वामी बोला- जो चार लाख रूपये पिता जी, मुझे पूँजी के रूप में दे गये थे और कह गये थे कि पूँजी बिगाड़ना मत, इसकी वृद्धि करके अपने बच्चो को देना और उन्हें भी ऐसी शिक्षा देना कि वे पूँजी बिगाड़े नही, पूँजी बढ़ाते रहें। बस पिता जी के आदेश का पालन करते हुए मैंने तीन लाख रूपये मूल पूँजी में बढाये, लेकिन अब तो सब लुट गया। मैं बर्बाद हो गया। कुलगुरु बोले घबराओ मत, विवेक धैर्य और साहस से काम लेकर स्थिति का सामना करो। लेकिन एक बात बताओ- तुमने पूँजी में से कभी कुछ भी रुपया लिया या नहीं ?  गृहस्वामी बोले – जी नहीं, रुपया निकालते तो सात लाख रुपया कैसे जमा होते ? और भविष्य में भी इस रूपये को निकाल कर उपयोग लेने का इरादा नही था या नहीं है ? गृहस्वामी बोले जी नहीं था, और अब भी नहीं है। क्योकि पूँजी को बढ़ाना है घटाना नही, अगर रुपया खर्च करूंगा तो रुपया बढेगा कैसे ? कुलगुरु बोले फिर तो चिंता और शोक करने की बात ही नहीं रही। मैंने आपके घर के सामने गिट्टी के ढेर लगे देखें हैं। वहाँ से गिट्टी मंगवा लो और तिजोरी में रख लो। नकद रुपया तुम पूरे जीवन भर खर्च करना चाहते नही और गिट्टी को खर्च न कर सकोगे। दोनों बराबर हैं।

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