आउटलायर्स

Introduction

एक Outlier कौन होता है ? आउटलायर्स वो इंसान है जो

बाकियों से कुछ हटकर करे. वे भीड़ का हिस्सा नहीं होता है बल्कि कुछ अलग और अनोखा होता है. ऐसे लोग जो सफलता की चोटी छूते है. आउटलायर्स जीनियस होते है, एथलीट, रॉक स्टार, बिज़नस टाईकून्स और दुनिया के बिलेनियर लोग होते है. मगर उनका राज क्या है ?
हम अक्सर ऐसे लोगो को ज्यादा पंसद करते है जो कामयाब है. गरीब से अमीर बनने की कहानी हमें इंस्पायर करती है. ऐसे लोगो के बारे में हम बहुत सी बाते जानना चाहते है जैसे कि उनकी लाइफस्टाइल kya है, वे कैसे रहते है ? उनकी पर्सनेलिटी कैसी है? क्या उनमें कोई खास टेलेंट है ? ऐसी बहुत से सवाल हमारे दिमाग में उठते है ? हमें लगता है कि अपनी किसी ख़ास क्वालिटीज़ की वजह से वे कामयाब है. मगर असलियत कुछ और ही है जो हमें अक्सर दिखाई नहीं देती.
इस किताब में हमें कुछ ऐसी बाते सीखने को मिलेंगी जो बतायेंगी कि सक्सेस को लेकर हमारी सोच कहाँ गलत है. हमारे हिसाब से सक्सेस सिर्फ एक पर्सनल चीज़ है. हमें लगता है कि जो लोग सक्सेसफुल है उन्होंने सब कुछ अपने दम पर ही किया है. उनकी कामयाबी के पीछे सिर्फ और सिर्फ उनकी ही काबिलियत है. तो क्या सिर्फ टेलेंट होने से ही काम चल जायेगा? अपब्रिंगिंग का क्या ? उन लोगो का क्या जो उनकी कामयाबी के पीछे है ? सोसाइटी और कल्चर का क्या जिसे वे बीलोंग करते है ?
इन आउटलायर्स की कहानी पढके हम इन सवालो के ज़वाब ढूढने की कोशिश करेंगे. हमें इनसे सीख लेकर सक्सेस को नए नज़रिए से समझने की कोशिश करेंगे.

कैनेडीयन हौकी
हौकी कैनेडा का पोपुलर सपोर्ट है.  वहां के लड़के इसे किंडरगारटेन से ही सीखना शुरू कर देते है. हर साल स्कूलों में हौकी लीग होती है. मगर सवाल ये कि वे अपने नेशनल टीम के लिए बेस्ट प्लेयर कैसे चुनते है ? और ये बात गौर करने वाली है कि ज़्यादातर बेस्ट हौकी प्लेयर्स जनवरी से मार्च के बीच पैदा हुए लोग है. तो ऐसा कैसे हो गया ?
इसका सीक्रेट ये है कि हौकी कोच क्लास के सबसे बड़ी Age वाले लडको को ही चुनते है. जैसे कि मान लो कोई लड़का दिसम्बर में पैदा हुआ है तो उसे टीम में नहीं चुना जाएगा. बड़ी Age वाले लड़के फिजिकली ज्यादा माबूत होते है इसलिए उन्हे चुना जाता है. Age में महीनो का गेप लडको की बॉडी में काफी डिफ़रेंस पैदा करता है. 9 से 10 की उम्र के बीच वाले लडको का चुनाव इसी हिसाब से किया जाता है.
जो लड़के उम्र में बड़े होते है उन्हें कोच ट्रेनिंग देता है, उन्हें बाकियों से तीन गुना ज्यादा प्रेक्टिस भी करनी पड़ती है. अपने टीन्स में पहुंचने तक ये लड़के हौकी के खेल में एक्सपर्ट हो चुके है. और फिर उन्हें बड़ी लीग्स में खेलने के लिए भेज दिया जाता है.
यही सेलेक्सन प्रोसेस बाकी खेलो के लिए भी है. एज डीफरेन्स ओलंपिक्स में भी काफी मायने रखती है. साल के दुसरे हिस्से के महीनो में पैदा हुए बच्चो का टेलेंट अक्सर अनदेखा ही रह जाता है. छोटी उम्र वाले बच्चो को अक्सर स्पोर्ट्स में उतना एंकरेजमेंट नहीं मिल पाता जितना मिलना चाहिए. पर अगर उन्हें भी उतना ही सपोर्ट और मौका मिले तो उनका हुनर भी निखर सकता है. हो सकता है उनमे से भी कोई सक्सेसफुल एथलीट बन जाये.
कैनेडा की नेशनल हौकी टीम इस को-इन्सिडेन्स की वजह से ही आउटलायर्स बनी. ये इसलिए हुआ क्योंकि उनके प्ल्येर्स पहले पैदा हुए थे और फिजिकली मज़बूत थे. उन्हें सक्सेसफुल होने का मौका दिया गया. और इसी तरह एक के बाद एक मौके उन्हें मिलते रहे. 
हमारा समाज उन्ही को ज्यादा मौके देता है जो ज्यादा सक्सेसफुल होते है. उनके लिए हर दरवाज़ा खुला होता है जो उनका स्टेट्स और भी ऊँचा कर देता है. और वे लोग जो फेल होते है उन्हें समाज डिसमिस कर देता है. क्योंकि ये हमारा सक्सेस को देखने का नजरिया है. हम केवल पर्सनल अचीवमेंट को ही सब कुछ समझते है. हम कभी भी ये नहीं सोचते कि हम किसे मौका दे रहे है और किसे नहीं, सक्सेसफुल होने में इसका भी एक बड़ा हाथ है.




10,000 Hours
जब आप किसी चीज़ में एक्सपर्ट हो जाते है तो उसकी प्रेक्टिस करना छोड़ देते है, क्योंकि अब आपको और  प्रेक्टिस करने की ज़रुरत महसूस नहीं होती” 
1990 में बेर्लिने के एकेडमी ऑफ़ म्यूजिक में एक स्टडी की गयी थी जिसमे साइकोलोजिस्ट का एक ग्रुप ये पता करना चाहता था कि प्रेक्टिस और टेलेंट, सक्सेस के लिए कितने ज़रूरी है. क्या वाईलेनिस्ट अपने टेलेंट की वजह से ही इतना अच्छा कर पाते है ? या फिर ये उनकी प्रेक्टिस का नतीजा है ?
साईंकोलोजिस्ट ने ये पाया कि जो स्टूडेंट जितना ज्यादा टाइम प्रेक्टिस में लगाते है वे उतना ही अच्छा वायोलिन बजाते थे. बच्चे जैसे जैसे बड़े होते है उतना ज्यादा वक्त वे अपनी प्रेक्टिस को देते है.. और बीस साल की उम्र तक आते-आते वे बेस्ट वायोलिनिस्ट बन चुके होते है और पहले से 10,000 घंटे की प्रेक्टिस कर चुके होते है.
यही स्टडी पियानिस्ट पर भी की गयी, जो अमेच्योर थे उन्होंने बचपन में सिर्फ 2,000 घंटे ही प्रेक्टिस की थी मगर प्रोफेशनल लोग हर साल अपने प्रेक्टिस का टाइम बड़ा देते थे और 20 साल के होते-होते इन्होने कुल 10,000 घंटो की प्रेक्टिस कर ली होती है. और साकोलोजिस्ट को पता लगा कि इसमें “नेचुरल” जैसी कोई बात नहीं है. ऐसा कोई मूयुजिशियन नहीं हुआ जो कम प्रेक्टिस करके भी बेस्ट म्युजिशियन बना.
किसी भी चीज़ में वर्ल्ड क्लास बनने के लिए आपको कम से कम 10,000 घंटे की प्रेक्टिस तो करनी ही पड़ेगी. बाकि स्टडीज में भी ये जादुई नंबर प्रूव हो चूका है. म्यूजिशियन से लेकर एथलीट, राइटर और क्रिमिनल मास्टरमाइंड्स तक सबको टॉप तक पहुँचने के लिए 10,000 घंटे प्रेक्टिस की ज़रुरत पड़ती है. ऐसा लगता है कि शायद हमारे दिमाग को किसी भी चीज़ का मास्टर बनने और उसमे महारत हासिल करने में 10,000 घंटे तो चाहिए ही चाहिए.
लेकिन सच तो ये कि हर कोई 10,000 घंटे स्पेंड नहीं कर सकता. इसे आप खुद से अचीव कर ले, ये पॉसिबल नहीं है. जब आप छोटे होते है तब आपके पेरेंट्स सपोर्टिव होने चाहिए. बड़े होने के बाद आपके पास इतना खाली टाइम होना चाहिए. लेकिन अगर आप गरीब है और काम करना आपकी मजबूरी है तब आपके पास इतना टाइम नहीं होगा कि आप प्रेक्टिस कर सके. ऐसे में 10,000 घंटे की प्रेक्टिस होना किसी बड़े मौके से कम नहीं है.
आप बिल गेट्स का उदाहरण ले लीजिये. वे 8th ग्रेड से ही प्रोग्रामिंग करते आ रहे है. ये उनके लिए ख़ास अपोरचुयूनिटी थी क्योंकि ये 1960 का वक्त था. उस टाइम में सिर्फ अमीर लोगो के पास ही कम्पुटर होता था. बिल गेट्स के पिता एक वकील थे और उनकी माँ अमीर घर की थी. उन्होंने बिल गेट्स को सीयेटेल के एक एलाईट स्कूल लेकसाइड में डाला जो 1968 में कुछ ऐसे गिने चुने स्कूले में शामिल था जहाँ कि कंप्यूटर क्लब था. स्कूल में 8th ग्रेड से लेकर हाई स्कूल तक बिल गेट्स ने प्रोग्रामिंग की प्रेक्टिस लगातार की. .


जब बिल गेट्स कॉलेज से निकल कर माइक्रो-सॉफ्ट स्टार्ट करने की तैयारी कर रहे थे, उन्होंने कंप्यूटर प्रोग्रामिंग में 10,000 घंटे से ज्यादा की प्रेक्टिस कर ली थी. वे एक बहुत ब्रिलियंट प्रोग्रामर और एंट्प्रेन्योर थे. मगर बिल गेट्स को वो ख़ास मौका मिला जैसा कि वे खुद कहते है “ मै बहुत लकी था”
एक आउटलायर बनने के लिए आपको एक ख़ास अपोर्च्यूनिटी की ज़रुरत है. आपको वे लकी मौका मिलना चहिये जिससे आप खुद को प्रूव कर सके. अगर आपके पास हटकर टेलेंट है तो आपको एक हटकर मौके की भी सख्त ज़रुरत है.

बीटल्स
ऊपर देखो, एक नज़र डालो उस आदमी पर जिसके पास कभी कुछ नहीं था, ना कोई खानदान ना ही सर पर किसी का हाथ मगर आज वो जो भी है सिर्फ अपने दम पर है” …” ये शब्द रोबर्ट विन्थ्रोप ने बेंजामिन फ्रेंकलिन के स्टेच्यू से पर्दा उठाते हुए कहे थे. तो क्या सच में आउटलायर्स ऐसे ही होते है?
हम सक्सेसफुल लोगो की ऑटोबायोग्राफी पढ़कर ओब्सेस्ड हो जाते है क्योंकि उन सब की जिंदगी शुरुवात में बेहद मामूली होती है. मगर उन सबने सारी मुश्किलों का सामना करते हुए सक्सेस हासिल की है. क्योंकि उन सब के पास कोई न कोई खूबी थी. उनके सफलता के पीछे जो चीज़ हमें दिखाई नहीं देती वो है”अपोर्च्यूनिटी” जैसे बेंजामिन फ्रेंकलिन को बहुत से मौके भी मिले और एडवांटेजेस भी.
आउटलायर्स की सक्सेस के पीछे उनके पेरेंट्स और उनकी कम्युनिटी का भी हाथ होता है. एक तरह से वे अपने कल्चर और अपने पूर्वजो की लेगेसी के एहसानमंद होते है. अगर हमें ये जानना है कि कोई इंसान कैसे सकसेस्फुल बनता है तो सिर्फ उसकी क्वालिटी जानना ही काफी नहीं है. हमें ये भी जानना होगा कि वो आदमी कब और कहाँ पैदा हुआ और पला-बढ़ा था.
अब जैसे कि बीटल्स को ही ले लो, पोपुलर होने से पहले उनको हेमबर्ग, जर्मनी में अपना ख़ास मौका मिला था, ये 1960 की बात है. उस वक्त बीटल्स सिर्फ एक हाई स्कूल बेंड हुआ करता था.
उन दिनों हेमबर्ग में स्ट्रिप्स क्लब्स की भरमार थी. ऐसे में ज्यादा कस्टमर अटरेक्ट करने के लिए रॉक बेंड काफी डिमांड में थे. वही एक ब्रूनो नाम का क्लब हुआ करता था जहाँ लिवरपूल, इंग्लैंड से कई बेंड्स बुलाये जाते थे. क्लब का मालिक फिलिप नार्मन चाहता था कि उसके क्लब में बेंड लगातार घंटो तक बजाता रहे.
जैसे जॉन लेनन ने हेमबर्ग में अपने एक्सपीरिएंस के बारे में कहा था हम और भी ज्यादा बेहतर होते जा रहे थे और हमारा कॉन्फिडेंस भी बढ़ रहा था....हम बहुत बढ़िया करने की कोशीश करते थे...पूरे दिलो-जान से ..ताकि हम इसमें अपना बेस्ट दे सके.”
रोज़ रात को हेमबर्ग के क्लबो में बीटल्स पूरे आठ घंटो तक बजाते रहते थे. इस प्रेक्टिस से उनकी क्रियेटिविटी, उनका स्टेमिना, डिसप्लिन बढ़ने लगा था. लिवरपूल में वे एक ही गाना एक घंटे तक बजाते थे. मगर हेमबर्ग में उन्हें इसके डिफरेंट वर्जन बजाने पड़ते थे. वे आठ घंटे कवर करने के लिए रॉक और जाज भी बजाया करते थे. और 18 महीने के अन्दर बीटल्स हेमबर्ग में 270 रातो की परफॉरमेंस दे चुके थे. जब 1964 में जब वे पोपुलर हुए तब तक वे 1200 से ऊपर लाइव परफोर्मंसे दे चुके थे. यही चीज़ थी जो उन्हें बाकी के रॉक एंड रोल बैंड्स से अलग करती है. लाइव आडियेंस के साथ उनकी प्रेक्टिस बाकियों से कई ज्यादा थी.
हेमबर्ग में बीटल्स को ख़ास मौके मिले और उन्हें हेमबर्ग, जर्मनी  के कल्चर और कम्युनिटी का भी फायदा हुआ. जैसे कि फिलिप नार्मन ने कहा था” जब वे वहां थे तो कुछ खास अच्छे नहीं थे मगर कब वे वहां से लौटे तो बेहतरीन थे... सबसे अलग.. कोई भी उनके जैसा नही था. इस तरह से उनकी शुरुवात हुई’ 
कारनेज, मॉर्गन और रॉकफेलर (Carnegie, Morgan and Rockefeller)
हिस्टोरियंस ने ह्यूमन हिस्ट्री के 75 सबसे अमीर लोगो की लिस्ट बनाई है. उन्होंने इसमें (pharaohs and Cleopatraफेराओ और क्लियोपेट्रा के टाइम से लेकर उसके बाद तक के लोग शामिल किये है. उन्होंने दुनिया के हर कोने से सबसे अमीर लोग ढूढने की कोशिश की है. हैरानी की बात है कि उनमे से 20% लोग सिर्फ अमेरिका के एक ही खानदान से है.
Andrew Carnegie इस लिस्ट में है. वे 1835 में पैदा हुए थे. जे.पी. मॉर्गन 1837 में पैदा हुए थे जबकि जॉन रॉकफेलर 1839 में पैदा हुए थे.  इन 75 अमीर लोगो में ग्यारह दुसरे अमेरिकन भी शामिल है. ये सब 1830 से 1840. के बीच पैदा हुए है और सब के सब बेहद अमीर है
क्या ये सिर्फ एक इतेफाक है ? इसके पीछे क्या वजह हो सकती है ? अगर हम ध्यान से देखे तो पता लगेगा कि 1860 से 1870 के बीच अमेरिका की इकोनोमी में बहुत बड़े बदलाव आये थे. ये वो टाइम था जब वाल स्ट्रीट डेवलेप हो रहा था. स्टील मेन्युफेक्चर होने लगा था और रेल रोड्स कनस्ट्रक्ट ho rhe the.  अमेरिकन इकोनोमी ट्रेडिशनल से मॉडर्न हो रही थी.
इस लिस्ट में शामिल सारे आउटलायर्स को इस इकोनोमिक बूम के हिसाब से एकदम सही वक्त मिला. 1840 में पैदा हुए लोग बहुत छोटे थे और 1820 में पैदा हुए बहुत बूढ़े थे. कारनेज, मॉर्गन और रॉकफेलर की उम्र बिलकुल सही थी और उन्हें इसी बात का फायदा मिला कि वे अपने देश की एकोनिमिक ग्रोथ का पूरा बेनिफिट ले पाए.
इन अमीर लोगो के पास टेलेंट भी था और विजन भी. पर सबसे बढ़कर उनके पास उन हॉकी प्लेयर की तरह एक चीज़ थी, और वो थी स्पेशल अपोर्च्यूनिटी. वे फाइनेंस और स्टील इंडस्ट्री में राज करने के लिए आये थे. क्योंकि वे सही वक्त और सही जगह पर पैदा हुए थे.




बिल गेट्स और स्टीव जॉन
चलिए, सिलिकोन वैली के आउटलायर्स पर एक नज़र डालते है. उन्हें अपनी स्पेशल अपोर्च्यूनिटी 1975 में मिली जब पर्सनल कंप्यूटर आलटेयर 8800 लांच हुआ था. पुराने कंप्यूटर मॉडल काफी भारी भरकम और महंगे हुआ करते थे. लेकिन अल्टेयर की कीमत सिर्फ $397 थी. इसे खुद ही घर में असेम्ब्ल किया जा सकता था. कोई भी इसे खरीद कर इस्तेमाल कर सकता था |
1975 से पर्सनल कंप्यूटर का दौर शुरू हुआ. अगर उस वक्त आप बहुत छोटे या बहुत बूढ़े होते वो वो स्पेशल अपोर्च्यूनिटी आपको नहीं मिलती. पर अगर आप 1958 के बाद पैदा हुए होते तो आप तब हाई स्कूल में होते लेकिन अगर आप 1952 से पहले जन्मे होते तो शायद आप आईबीएम में जॉब कर रहे होते.
1975 में आईबीएम् सिलोकोन वैली की एक एस्टबिलीएस्ड कंपनी बन चुकी थी. ये कंप्यूटर के मेनफ्रेम प्रोड्यूस करके बिलियन्स kama| रही थी. जो जॉब करने की उम्र में थे पहले से हो कंपनी में मौजूद थे और अच्छा कमा रहे थे. लेकिन वे ओल्ड पैराडीगम को बेलोंग करते थे. उनको स्पेशल अपोर्च्यूनिटी नहीं मिली थी..
पर्सनल कंप्यूटर के रेवोल्यूशन के दौर में पैदा होने की सही उम्र 1955 में पैदा होने वालो की थी. क्योंकि 1975 में ये जेनेरेशन सीधे कॉलेज से निकल कर आई थी. उनके पास अपोर्च्यूनिटी थी कि वे मोर्डेन कंप्यूटर के फील्ड में पोसिबिलिटीज़ एक्सप्लोर कर सके. 1955 में पैदा हुआ सॉफ्टवेयर बिलेनियर कौन है ?
बिल गेट्स अक्टूबर 28, 1955 में पैदा हुए थे. उनके माईक्रोसॉफ्ट के को-फाउंडर पॉल एलेन जनवरी 21, 1956 में पैदा हुए थे. दोनों ने साथ ही लेकसाइड से पढाई की थी. दोनों बेस्ट फ्रेंड्स है और लेकसाइड कंप्यूटर क्लब के मेम्बेर्स है.
स्टीव जॉब्स फरवरी 24, 1955 में पैदा हुए थे. जॉब्स गेट्स की तरह बचपन से ही अमीर नहीं थे. उन्हें अडॉप्ट किया गया था मगर उनकी परवरिश माउंटेन वुयू, केलिफोर्निया में हुई थी. ये जगह सिलिकॉन वैली के सेंटर में थी.
जॉब्स ऐसे aas-पड़ोस में पले-बढे जहाँ (Hewlett Packard) हेवलेट पेकार्ड के इंजीनियर्स रहते थे. उन्होंने एचपी साइंटिस्ट के फ़ोरम्स अटेंड किये. वे माउंटेन व्यू की फ़्ली मार्किट में इलेक्ट्रोनिक्स स्पेयर पार्ट बेचा करते थे.
जब स्टीव जॉब्स 12 की उम्र के थे उन्हें बिल हेवलेट का नंबर एक फोनबुक में मिला. उन्होंने एचपी के को- फाउंडर को फोन करके पुछा कि क्या उन्हें स्पेयर पार्ट्स चाहिए. जॉब्स ने ना केवल स्पेयर पार्ट्स बेचे बल्कि उन्हें एचपी में समर जॉब भी मिल गयी.
ऐसा नहीं है कि यू.एस के सरे बिज़नस टाईकून्स 1955 और 1830 में ही पैदा हुए है. मगर उनकी स्टोरीज़ में ये आम बात है. हम इंडीवुजुयेल अचीवमेंट देखने में इतने खो जाते है कि हम पेटर्न नहीं देख पाते.
इन सभी सक्सेसफुल लोगो को खास मौके मिले. उन्होंने इन मौको को लपका और इनका पूरा-पूरा फायदा उठाया. 
वे ऐसे टाइम में पैदा हुए जब सोसाइटी उन्हें उनके हार्ड वर्क का पूरा इनाम दे सकती थी. उनकी सक्सेस सिर्फ उनकी कमाई हुई नहीं है. जिस दौर में वे पैदा हुए उसका भी उनकी सक्सेस में एक बहुत बड़ा रोल है.
एशियंस और मैथ
कभी सोचा है एशियंस मैथ में क्यों अच्छे होते है ? आप कहेंगे कि शायद बहुत सारे रीजन्स है. लेकिन ये सोचना मुश्किल है कि इनके कल्चर में ही कुछ गहराई से छुपा है. एशियन अपनी कल्चर लीगेसी की वजह से मैथ में आउटलायर्स होते है. उनके पास लॉजिकल नंबर नेमिंग और काउंटिंग सिस्टम है.
चाइनीज में नंबर वर्ड्स बहुत छोटे है. 7 उनके यहाँ “qi” है और 4 “si” है. इंग्लिश में उन्हें सेवन और फोर कहते है. तो चाईनीज में नंबर नेम याद रखना और बोलना आसान है क्योंकि वे छोटे है.
हम इलेवन, ट्वेल्व और थर्टीन इंग्लिश में काउंट करते है. पर हम सिस्टीन,सेवेनटीन, एटीन क्यों कहते है ? वनटीन,टूटीन और थ्रीटीन क्यों नहीं कहते ? चाईनीज, जेपेनीज़ और कोरियंस के लिए नंबर सिर्फ इलेवन के लिए टेन-वन, ट्वेल्व के लिए टेन-टू ट्वेंटी के लिए टू-टेन्स और ट्वेंटी वन के लिए टू-टेंस-वन है.
इंग्लिश में नंबर नेम्स इररेगुलर है लेकिन एशियन्स के लिए नंबर्स को एड्ड करना ज्यादा आसान है. 37+22 करने के लिए एक इंग्लिश फर्स्ट ग्रेडर पहले थर्टी सेवन और ट्वेंटी टू को नंबर्स में कन्वर्ट करेगा फिर जोड़ेगा मगर एशियन के लिए थ्री-टेंस-सेवन और टू-टेंस-टू को प्लस करना ज्यादा आसान है. क्योंकि इक्वेशन उसके सामने ही है. जवाब फाइव-टेंस-नाइन होगा.
एशियन नंबर सिस्टम बिलकुल सीधा है. एशियन बच्चे वेस्टर्न बच्चो के मुकाबले जल्दी काउंटिंग करना, नंबर याद रखना और केलकुलेट करना सीख लेते है. उनके यहाँ फ्रैक्शन भी ज्यादा आसान है. 3/5 इंग्लिश में थ्री-फिफ्थ होगा.चाईनीज लोग कहते है “आउट ऑफ़ फाइव पार्ट्स, टेक थ्री”. एक छोटा बच्चा भी फ्रैक्शन को वर्ड्स में बोल सकता है. न्युम्रेटर को पहले ही डेनोमीटर से अलग किया जा चूका है.
इंग्लिश में “decade” नंबर जैसे ट्वेंटी-वन, ट्वेंटी-टू ट्वेंटी-थ्री के लिए पहले आता है मगर ‘टीन्स” के लिए यूनिट नंबर पहले आता है जैसे फोर्टीन, फिफ्टीन,और सिक्सटीन में. पहले से ही वेस्टर्न बच्चो का मैथ से दिल उब जाता है” मैथ कुछ समझ में नहीं आता, इसकी भाषा बहुत मुश्किल है, इसके बेसिक रूल्स बहुत बेढंगे और कॉम्प्लीकेटेड होते है”
अपने सिंपल और लोजिकल नंबर सिस्टम की वजह से एशियन बच्चो को मैथ सीखना मज़ेदार लगता है. वे जल्दी और आसानी से इसे सीख जाते है. क्योंकि उनके नंबर्स ही उनको ये एडवांटेज देते है.
तो इस बात से ही पता चल जाता है कि क्यों एशियंस मैथ में टेलेंटेड होते है. लेकिन ईस्ट और वेस्ट के नंबर सिस्टम के बीच का डिफ़रेंस इस बात का इशारा भी देता है कि मैथ में अच्छा होना भी किसी ग्रुप के कल्चर से जुड़ा हो सकता है”



राइस पैडलर्स
चाइनीज लोग हजारो सालो से चावल की खेती करते आ रहे है. उनकी अनोखी चावल उगाने की टेक्नीक को कई दुसरे एशियन देशो ने भी अपनाया है. राइस कल्टीवेशन का प्रोसेस बहुत मेहनत वाला होता है. ये व्हीट यानि गेंहू, की तरह नहीं है कि बस खेत तैयार किया और बोना शुरू कर दिया.
चावल उगाने के लिए किसानो को पैडीज बनानी पड़ती है. और इसमें पानी की भरपूर सप्लाई होना ज़रूरी है. किसान पानी की सप्लाई के लिए चैनेल्स और डाईक्स बनाते है. फिर मुलायम मिट्टी में चावल के पौधो को प्लांट किया जाता है. फर्टीलाइज़ेर के लिए चाइनीज इंसानी खाद और बाकि ओरगेनिक मेटेरियल्स इस्तेमाल करते है.
राइस कल्टीवेशन का काम पूरा परिवार मिलकर करता है. किसान का परिवार, रिश्तेदार और दोस्त सब इस काम में मदद करने आते है. इस बात का खास ध्यान रखा जाता है कि चावल के पौधे अच्छे से प्लांट किये जाए. जब चावल तैयार हो जाता है सब मिलकर फसल काटते है.
राइस पैडी बहुत छोटी होती है. एक होटल के कमरे जितने साइज़ की. एक खेत में 2 या 3 राइस पैडीज़ ही बन सकती है. एक चाइनीज गाँव सिर्फ 450 एकर जमीन से ही खुद के लिए चावल उगा सकता है. अमेरिका में 450 एकर का खेत तो एक फेमिली के पास ही होता है.
वेस्टर्न और ईस्टर्न एग्रीकल्चर में यही एक सबसे बड़ा डिफरेस है. मिडवेस्टर्न अमेरिका में फार्म्स बहुत बड़े-बड़े होते है. और इसीलिए वे मशीनों का इस्तेमाल करते है. वहां ह्यूमन एफ्फेर्ट कम है और मशीन की मदद से फार्मर ज्यादा फसल उगाता है.
चाईनीज और बाकि एशियंस के पास ज्यादा इक्विपमेंट नहीं होते है. ज्यादा फसल के लिए वे ज्यादा वक्त देते है और एफर्ट करते है. राइस पैडी छोटी होती है मगर फार्मर इसे जानबूझ कर इस्तेमाल करते है क्योंकि वे राइस की क्वालिटी के साथ समझौता नहीं करना चाहते. और अगर ज्यादा फसल चाहिए तो किसान ज्यादा मेहनत भी करता है.
और यूरोपियन फार्मर विंटर के दिनों में खाली बैठे रहते है. इन दिनों उनके पास कुछ काम नहीं होता तो वे लोग सोते रहते है. ग्रैहम रॉब, एक हिस्टोरियन ने लिखा है” फ़्रांस जैसे देशो में किसानो की हालत, नाइन्टीन्थ सेंचुरी में भी ये है कि बहुत दिनों तक खाली बैठने के बाद ही थोडा बहुत काम करने का मौका मिलता है”
जबकि चाइनीज फार्मर कभी खाली नहीं बैठता. गर्म मौसम में वो बम्बू हैट्स और बास्केट बनाकर बेचता है. वो राइस पैडीज की मरम्मत करता है. वो ड्राई बीन कर्ड और टोफू बनाता है. जब फार्मिंग सीजन नहीं होता तो चाइनीज़ लोग पैसे कमाने के लिए बाकि के छोटे मोटे काम करते रहते है. 
जब स्प्रिंग का मौसम आता है तो चाइनीज़ फार्मर फिर से सुबह सवेरे अपने खेतो में चल पड़ता है. 20 गुना चावल उगाना गेंहू या मक्का उगाने से 20 गुना ज्यादा मेहनत का काम है. और एक चाईनीज फार्मर राइस पैडीज में हर साल 3,000 घंटे काम करता है.
किसान की कड़ी मेहनत इस चाइनीज़ कहावत में नज़र आती है “सर्दियों में आलसी आदमी जमकर मर जाता है “ और “ खाने के लिए भगवान् की तरफ मत देखो बल्कि दोनों हाथो को काम करते हुए देखो” और आखिरी वाला रशियन कहावत से बिलकुल अलग है “अगर भगवान नहीं लाएगा तो धरती नहीं देगी”” ईस्टर्न एग्रीकल्चर ज्यादा मेहनत वाली और प्रेक्टिकल है.
राइस पैडीज एशियन फार्मर की कड़ी मेहनत की झलक है. उन्होंने अपनी मेहनत से ही नेचर के चेलेंज को एक्सेप्ट किया और अपनी गरीबी पर जीत हासिल की. क्योंकि हार्ड वर्क उनकी कल्चरल लीगेसी का एक हिस्सा है. वे जहाँ जाते है अपनी इस क्वालिटी को साथ ले जाते है.

कन्क्लुज़न
अब हमें पता है कि सक्सेसफुल होने के लिए सिर्फ टेलेंट से ही काम नहीं चलता. उस टेलेंट की प्रेक्टिस करने के लिए स्पेशल अपोर्च्यूनिटी भी मिलनी ज़रूरी है. हमने अपब्रिंगिंग की इम्पोर्टेंस भी जानी. क्योंकि आउटलायर्स ऐसे ही नहीं पैदा होते है. सही वक्त और जगह जहाँ वे पैदा होते है उसका भी उनकी सक्सेस में बड़ा हाथ होता है.
हालाँकि किसी इंडीविज्युएल की क्वालिटी से उसके सक्सेस को एक्सप्लेन करना आसान है. मगर वे सब क्वालिटी उन्हें अपने कल्चर से भी मिलती है. इन सब सक्सेस स्टोरीज़ से हमें एक बात जो सीखने को मिलती है वो ये है कि हमारे पास जो है, हमें उसका ही इस्तेमाल करना होगा. अगर हमें वो अपोर्च्यूनिटी या एडवान्टेज मिले तो हम उसमें अपनी मेहनत भी जोड़ सकते है और इस तरह हम भी आउटलायर्स बन सकते है.

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हाउ टू विन फ्रेंड्स एंड इन्फ्लुएंस पीपल.

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