कुछ होनहार जो आज भी गांव में ज्ञान की लौ जलाते हैं।
शिक्षा ना केवल हमारे नैतिक विकास में मददगार
होती है, बल्कि हमारी भौतिक और आर्थिक प्रगति के लिए भी जरूरी है। गांव में अनेक लोग ज्ञान की लौ जलाने के लिए आगे आ रहे हैं । ऐसे अनेक उदाहरण हैं । जिनमें युवा तथा अनुभवी बुजुर्ग गांव में रहने वाले निर्धन वंचित और उपेक्षित परिवारों के बच्चों के लिए शिक्षा का उपहार दे कर उन्हें विकास की मुख्यधारा से जोड़ने के लिए अनुकरणीय कार्य कर रहे हैं । कहते हैं आवश्यकता आविष्कार की जननी है । इसी कहावत के अनुरूप उत्तर प्रदेश में गोरखपुर से 15 किलो मीटर दूर भोरापार गांव में एक विशाल पुस्तकालय बन गया है । जहां रखी 11 हजार किताबें है आस-पास के गांव के उन विद्यार्थियों के लिए वरदान साबित हो रही हैं , जिनके मां बाप महंगी पाठ्य पुस्तके खरीदने की हालत में नहीं है । दो कमरों में चलने वाला यह पुस्तकालय असल में गांव के एक ही व्यक्ति श्याम लाल शुक्ल के 50 साल पहले देखे सपने को साकार रुप है।
श्यामलाल 1962 में इंटर में पढ़ रहे थे , तो उनके पास पाठ्य पुस्तके खरीदने के लिए पैसे नहीं थे , और ऐसा कोई स्रोत नहीं था जहां से वह किताबें ले सकें । श्याम लाल शुक्ल ने अपने गांव में एक लाइब्रेरी बनाने का फैसला किया, ताकि भविष्य में किताबों के अभाव में बच्चों की पढ़ाई में बाधा ना आए। श्याम लाल ने अपने कुछ साथियों से अपने इस इलाके के बारे में चर्चा की, वह सभी जो बाद में खुद भी अध्यापक बने, इस सपने को साकार करने को तैयार हो गए। इस तरह 50-60 पुस्तकों से 1964 में लाइब्रेरी की शुरुआत हुई। बहुत दिनों तक पुस्तकालय किराए के मकान में चलता रहा, लेकिन बाद में ग्राम पंचायत में कुछ जमीन आवंटित की जिस पर दो कमरों की इमारत बनाई गई । इस समय सैकड़ों छात्र-छात्राएं लाइब्रेरी का लाभ उठा रहे हैं ।
उधर बेगम अशरफ पुणे के सरकारी स्कूल में अध्यापिका थी। वह मुस्लिम परिवारों में लड़कियों को शिक्षा देने में कोताही देख कर दुखी रहती थी। और इस हालात को बदलने के लिए कुछ करना चाहती थी, किंतु नौकरी और बाल बच्चों की जिम्मेदारी के कारण कुछ नहीं कर पाती । इस बीच उनकी मां की मृत्यु हुई और उनके मन में मां की याद में कुछ सेवा कार्य करने की इच्छा जागी । इसके लिए उन्होंने पुणे के पास के गांव शहीद नगर में जहां ज्यादातर गरीब मजदूर रहते थे सिलाई केंद्र खोला। नौकरी से रिटायर होने के बाद में सारा समय शिक्षा प्रसार में लगाने लगी उनके काम से खुश होकर गांव के एक भले आदमी ने उन्हें 3000 वर्ग फुट का प्लॉट दान में दे दिया । बेगम अशरफ ने मुस्लिम समाज प्रबोधन संस्था का गठन किया और 1990 में गांव में प्राइमरी स्कूल खोला । इसके बाद उन्होंने उच्च विद्यालय खोला, उनके तीन स्कूल चल रहे हैं । जिसमें 12 सौ से अधिक लड़कियां शिक्षा प्राप्त कर रही है । बेगम अशरफ के उत्साह और उनके शिक्षा केंद्र में अच्छे परिणाम को देखते हुए कुछ संगठनों और एक निजी बैंको ने मिलकर 5400 वर्गफुट क्षेत्र में एक शिक्षा परिषद के निर्माण में मदद की। 1993 में उन्होंने लड़कियों के लिए छात्रावास भी बनाया। जिसमें आस-पास के गांव से आकर लड़कियां अपनी पढ़ाई कर सकती थी । उन्होंने लड़कियों को व्यवसायिक प्रशिक्षण देने के लिए आईटीआई भी खोला ।
उधर राजस्थान में एक विकलांग व्यक्ति धनीराम पुरोहित ने मुख बधिर बच्चों को शिक्षा की मुख्यधारा से जोड़ने की दिशा में अनूठी पहल की। धनीराम ने नागौर जिले में आसपास के गांव के गूंगे बच्चों के लिए महावीर मूक बाधिर विद्यालय खोला। जहां बच्चों के लिए छात्रावास की व्यवस्था भी है । इस स्कूल में बच्चों के रहने , खाने पीने तथा शिक्षा की निशुल्क व्यवस्था है । विशेष वर्ग को शिक्षा प्राप्ति के अवसर देने में शिक्षकों की तरह संवेदनशील शिक्षा अधिकारी भी उपयोगी भूमिका निभा सकते हैं। तमिलनाडु में पिछले दिनों में पूर्वी जिले के मेल्लू गांव के राजकीय कन्या उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में एक विचित्र समस्या पैदा हो गई। उस स्कूल की मुख्य अध्यापिका वी वी निर्मला ने एक गांव की जब इंदौर लड़कियों को 11वीं कक्षा में दाखिला देने से इंकार कर दिया। जिनकी शादी हो गई थी। मुख्य अध्यापिका का तर्क था कि बाल विवाह करने वाली इन लड़कियों के स्कूल में आने से अन्य लड़कियों पर बुरा असर पड़ेगा। लेकिन दोनों लड़कियां और उनके मां बाप तथा ससुराल वाले पढ़ाई जारी रखने में हक में थे। इस बात की जानकारी जब मदुरई के मुख्य जिला अधिकारी को मिली तो उन्होंने स्कूल में जाकर मुख्य अध्यापिका को समझाया कि बाल विवाह अवश्य गैर कानूनी है, लेकिन उसके कारण इन बच्चों की दुहरी मार क्यों पड़े। एक तो मां बाप ने उनकी शादी छोटी उम्र में कर दी और दूसरी वह पढ़ भी नहीं पाएगी ऐसे तो उनका जीवन और भी बदतर हो जाएगा। शिक्षाधिकारी ने कहा कि बाल विवाह की समस्या से निपटने के प्रयास से होने चाहिए लेकिन गांव की लड़कियों की शिक्षा में इससे कोई बाधा नहीं आनी चाहिए। उन के प्रयास से नवविवाहित लड़कियों को फिर से स्कूल में दाखिला कर लिया गया।
गुजरात के ही एक स्कूल की अध्यापिका मनू बेन परमार ने नेतराम गांव में अपने सरकारी प्राइमरी स्कूल में सामान्य शिक्षा के साथ साथ बच्चों को पर्यावरण शिक्षा देने का अभिनव प्रयोग किया। उन्होंने बच्चों की मदद से स्कूल में आयुर्वेदिक उद्यान बनाया। जिसमें लगभग 30 जातियों के 100 से अधिक पौधे लगाए गए हैं । वृक्षारोपण में बच्चों की रुचि बनाए रखने के लिए उन्होंने हर पेड़ का नाम किसी एक बच्चे के नाम पर रखा है। इस से बच्चों में पेड़ों की देखभाल के प्रति रूचि बढ़ी। मनु बेन ने स्कूल के प्रांगण में कई तरह की सब्जियां भी उगाई हैं । जिनका इस्तेमाल मिड डे मील तैयार करने के लिए किया जाता है । स्कूल के प्रति बच्चों का लगाव बढ़ जाने से स्कूल छोड़ने के अनुपात में काफी गिरावट आई है । मनु वेन के प्रयास की सफलता से प्रेरित होकर आस-पास के गांव के स्कूल में भी कुछ अध्यापक पेड़ पौधे लगाकर स्कूलों का पर्यावरण बेहतर बनाने में लगे हैं।
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