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जनवरी, 2017 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

अंतिम प्रयास (कहानी)

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अंतिम प्रयास एक विरान से गाँव में एक मंदिर के पुजारी रहा करते थे जो ज़्यादातर धर्म - कर्म के कामों में लगे रहते थे।  एक दिन की बात है वे किसी काम से गांव के बाहर थे तभी अचानक उनकी नज़र एक बड़े से अच्छे दिखने वाले पत्थर पे पड़ी।  उनके मन में विचार आया कितना विशाल पत्थर है क्यूँ ना मैं इस पत्थर से भगवान की एक मूर्ति बनवाऊ। यही सोचकर पुजारी ने वो पत्थर वहां से उठवा लिया। गाँव लौटते हुए पुजारी ने उस पत्थर के टुकड़े को एक मूर्तिकार को दे दिया जो  उस स्थान का बहुत ही प्रसिद्ध मूर्तिकार था। मूर्तिकार जल्दी ही अपने औजार लेकर पत्थर को काटने में लग गया। जैसे ही मूर्तिकार ने पहला प्रहार किया उसे एहसास हुआ की पत्थर बहुत ही कठोर है। मूर्तिकार ने एक बार फिर से पूरे जोश के साथ प्रहार किया लेकिन पत्थर पर कोई भी असर नहीं हुआ। अब तो मूर्तिकार का पसीना छूट गया वो लगातार हथौड़े से प्रहार करता रहा लेकिन पत्थर टूटा ही नहीं। उसने लगातार 99 प्रयास किये लेकिन पत्थर तोड़ने में कामयाब नही हो पाया। अगले दिन जब पुजारी आये तो उस मूर्तिकार ने भगवान की मूर्ति बनाने से मना कर दिया और सारी बात बताई। पुज

सभी बाधाओं का हल (कहानी)

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  एक आदमी काफी दिनों से परेशान चल रहा था जिसके कारण वह काफी दिनों से चिड़चिड़ा तथा तनाव में रहा करता था।  वह इस बात से हमेशा परेशान रहता था कि घर के सारे खर्चे उसे ही उठाने पड़ते हैं, पूरे परिवार की जिम्मेदारी उसी के कन्धों पर टिकी है, हमेशा  उसके यहाँ किसी न किसी मेहमान का आना जाना लगा ही रहता था, और उसे बहुत ज्यादा आय कर भी देना पड़ता था, इसके अलावा उसे कई परेशानियां सताती रहती थी।   इन्ही सब बातों को सोच सोच कर वह ज़्यादातर  परेशान रहा करता था और बच्चों को अक्सर डांट देता , अपनी पत्नी से भी अधिकतर उसका किसी न किसी बात पर झगड़ा चलता ही रहता था।   एक दिन उसका बेटा उसके पास आया और कहा पिताजी मेरा स्कूल का होमवर्क करवा दीजिये, वह व्यक्ति पहले से ही तनावग्रस्त था, तो उसने बेटे को डांट कर भगा दिया। लेकिन  जब थोड़ी देर बाद उसका गुस्सा ठंडा हुआ तो, वह बेटे के पास गया और देखा कि उसका बेटा सोया गया और उसके हाथ में उसके होमवर्क की कॉपी रखी थी,  उसने कॉपी लेकर देखी और जैसे ही उसने कॉपी नीचे रखनी चाही, उसकी नजर होमवर्क के शीर्षक पर पड़ी। होमवर्क का शीर्षक था- वे चीजें जो हमें शुरू में अच्

दीपावली का उपहार (कहानी)

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दीपावली का उपहार एक डाकिये ने एक घर के दरवाजे पर आ कर कहा,"चिट्ठी ले लीजिये।" अंदर से एक लड़की की आवाज आई - "आ रही हूँ।" लेकिन तीन-चार मिनट तक कोई  भी अंदर से नहीं आया तो डाकिये ने फिर से कहा-"अरे भाई! इस घर में कोई है कि नहीं, अपनी चिट्ठी ले जाओ।  लड़की की फिर अंदर से आवाज आई-"भईया, दरवाजे के नीचे से चिट्ठी अंदर डाल दीजिए, मैं आ रही हूँ। डाकिये ने कहा-"नहीं, मैं खड़ा हूँ, तुम्हारी पंजीकृत (रजिस्टर्ड) पत्र है, इस पर तुम्हारे साइन चाहिये।"  लगभग छह-सात मिनट बाद दरवाजा खुला। डाकिया इस देरी के लिए झल्लाया हुआ तो था ही और उस पर अब वह चिल्लाने वाला था ही था कि दरवाजा खुलते ही वह चौंक गया, सामने एक अपाहिज लड़की जिसके पांव नहीं थे, उसके सामने खड़ी थी।    डाकिया चुपचाप उसको पत्र देकर और उसके साइन लेकर चला गया। सप्ताह, दो सप्ताह में जब कभी उस लड़की के लिए कोई  डाक आती तो डाकिया एक आवाज देता और जब तक वह लड़की न आती तब तक  वह बाहर ही खड़ा रहता।  एक दिन उस लड़की ने डाकिये को नंगे पैर खड़ा देखा। इससे पहले उसने कभी डाकिये के पैरों पर ध्यान नहीं

एक वेश्या के माध्यम से हुआ विवेकानंद को संन्यासी होने का अनुभव

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एक वेश्या के माध्यम से हुआ विवेकानंद को संन्यासी होने का अनुभव दोस्तों 12 जनवरी को युवा दिवस है , और हम सभी इसे स्वामी विवेकानंद के सम्मान में हर वर्ष इसी दिन युवा दिवस के रूप में मनातें है। लेकिन क्या आप जानतें है एक वेश्या के माध्यम से हुआ था विवेकानंद को संन्यासी होने का अनुभव। आइये पढतें है स्वामी जी का ही ऐसा ही एक संस्मरण। स्वामी विवेकानंद जी ने शिकागो के कोलंबस हाल में चल रहे धर्मसंसद में भाषण देकर पूरे विश्व को ये एहसास कराया कि भारत विश्व गुरु था और है।  अमेरिका प्रस्थान से पहले स्वामी विवेकानंद जी जयपुर के  महाराजा के महल में ठहरे थे। राजा विवेकानंद और रामकृष्ण परमहंस का परम भक्त था। स्वामी विवेकानंद जी के स्वागत के लिए राजा ने एक भव्य आयोजन किया। इसमें वेश्याओं को भी आमंत्रित किया गया था। राजा यह भूल गया कि वेश्याओं के माध्यम से एक संन्यासी का स्वागत करना उचित नहीं है।  विवेकानंद उस समय थोड़े अपरिपक्‍व थे। वे अभी पूरी तरह  से संन्‍यासी नहीं बने थे। जब उन्‍होंने वेश्‍याओं को देखा तो अपना कमरा बंद कर लिया। जब राजा को अपनी गलती का अहसास हुआ तो उन्होंने वि

अध्यापक की सीख (कहानी)

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अध्यापक की सीख (कहानी) एक स्कूल का छात्र था जिसका नाम था प्रकाश।  वह बहुत चुपचाप सा और अकेले अकेले  रहता था। किसी से ज्यादा बात भी नहीं करता था, इसलिए उसका कोई दोस्त भी नहीं था। वह हमेशा कुछ परेशान सा दिखता रहता था। पर लोग उस पर कभी ध्यान नहीं देते थे।   एक दिन वह अपने क्लास रूम में पढ़ रहा था। उसे गुमसुम बैठे देख कर  अध्यापक  उसके पास आये और क्लास के बाद मिलकर जाने को कहा।  क्लास खत्म होते ही प्रकाश अध्यापक  के कमरे में पहुंचा गया।    प्रकाश  मैं देखता हूँ कि तुम ज़्यादातर बड़े गुमसुम और शांत बैठे रहते हो, ना किसी से बात करते हो और ना ही किसी में रूचि दिखाते हो!  इसका क्या कारण है ? अध्यापक  ने प्रकाश से प्रश्न किया।     प्रकाश बोला, मेरा बीता हुआ समय बहुत ही खराब रहा है, मेरे जीवन में कुछ बड़ी ही दुखदायी घटनाएं घटित हुई हैं, मैं उन्ही के बारे में सोच कर परेशान रहता हूँ।    अध्यापक  ने  ध्यान से प्रकाश की बातें ध्यान से सुनी और उसे रविवार को अपने घर पर बुलाया।  प्रकाश अपने नियत समय पर अध्यापक  के घर पहुँच गया।   प्रकाश क्या तुम शिकंजी पीना पसंद करोगे? अध्यापक ने प्रकाश से

जीवन को सकारात्मक बनाने की कला (कहानी)

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  जीवन को सकारात्मक बनाने की कला (कहानी ) एक स्थान पर बड़ी सी इमारत का निर्माण कार्य चल रहा था, और वहाँ काफी दिन से इमारत का काम चल रहा था।  उस जगह रोज़ रोज़ सभी मजदुरों के छोटे छोटे बच्चे एक दुसरों की शर्ट पकडकर रेल-रेल का खेल खेला  करते थे। उन बच्चों में रोज कोई इंजिन बनता था और बाकी बच्चे इंजिन के डिब्बे बनते थे। इंजिन और डिब्बे वाले बच्चे प्रायः रोज बदल जाते थे, लेकिन केवल चङ्ङी पहना एक छोटा बच्चा हाथ में  रखे हरे रंग का रखा कपड़ा घुमाते हुए गार्ड बनता था। उनको रोज़ रोज़ देखने वाले एक व्यक्ति ने कौतुहल से  हमेशा गार्ड बनने वाले बच्चे को बुलाकर पूछा,  "बच्चे, तुम रोज़ गार्ड बन जाते हो। तुम्हें कभी इंजिन, कभी डिब्बा बनने की इच्छा नहीं होती क्या?" इस पर वह छोटा सा बच्चा बोला...   "बाबूजी, मेरे पास पहनने के लिए कोई भी शर्ट नहीं है। तो मेरे पिछले वाले बच्चे मुझे कैसे पकड़ेंगे? और मेरे पीछे कौन खड़ा रहेगा? इसलिये मैं रोज गार्ड बनकर खेल में हिस्सा लेता हूँ।   "ये बोलते समय उसके आँखों में पानी दिखाई दिया। आज वो बच्चा जीवन में सभी को एक बहुत बड़ी शिक्षा दे गया। किसी क

बेटे की ईमानदारी

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 बेटे की ईमानदारी रामू अपने गाँव के सबसे बड़े चोरों में से एक चोर था। रामू रोजाना जेब में छूरा डालकर रात को लोगों के घर में चोरी किया करता था। पेशे से चोर था, लेकिन हर व्यक्ति चाहता है कि उसका पुत्र अच्छे स्कूल में पढाई करे। तो यही सोचकर बेटे का दाखिला एक अच्छे स्कूल में करवा दिया। रामू का बेटा पढाई में बहुत होशियार और तेज़ था, लेकिन धन के अभाव में बारहवीं के बाद नहीं पढ़ पाया।  कई जगह नौकरी के लिए भी चक्कर लगाया, लेकिन कोई उसे उसके पिता जी के बदनामी के कारण नौकरी पर नहीं रखता था।  एक तो चोर का बेटा ऊपर से केवल बारहवीं पास इसलिए कोई नौकरी पर नहीं रखता था। अब वह बेचारा बेरोजगार की तरह ही दिन रात घर पर ही खाली बैठा रहता। रामू को अपने बेटे की चिंता सताने लगी तो सोचा कि क्यों ना इसे भी अपना काम ही सिखाया दिया जाये। जैसे मैंने चोरी करके अपना पेट पाला है, उसी तरह ये भी गुजर बसर कर लेगा।  यही सोचकर रामू एक दिन अपने बेटे को अपने साथ लेकर गया। रात्रि का समय था दोनों चुपके से एक इमारत में पहुंचे। इमारत में कई ढेर सारे कमरे थे सभी कमरों में अच्छी रौशनी थी, देखकर लग रहा था कि किसी अमीर व्यक्ति

इच्छाशक्ति

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इच्छाशक्ति अपने शरीर के कुरूपता के कारण सैमुअल जॉनसन को किसी भी स्कूल पढने के लिए नौकरी नहीं मिली। बचपन से साथ चली आ रही निर्धनता ने पल्ला नहीं छोड़ा। अंततः उन्होंने नौकरी की आशा ही छोड़ दी औऱ वह पढाई में फिर से लग गए। मेहनत और मजदूरी करके वे अपना गुजारा करते रहे। कुछ ही समय बाद उनकी मेहतन ने चमत्कार दिखाया और एक श्रेष्ठ विद्वान साहित्यकार के रूप में इंग्लैण्ड में ख्याति प्राप्त हुई। जॉनसन का अंग्रेजी विश्व कोष, दुनिया आज भी एक अमूल्य कृति मानती है। ऑक्सफोर्ड विश्व विद्यालय ने उनकी सेवाओं के लिए उन्हें ‘डॉक्टरेट’ की उपाधि की।     ‘टाम काका की कुटिया’ की प्रसिद्ध लेखिका हैरियट स्टो को परिवार का खर्च चलाने तक के लिए कठिन श्रम करना पड़ता था, गरीबी और मुश्किलों के बीच घिरे रहकर भी उन्होंने थोड़ा-थोड़ा समय निकालकर पुस्तक पूरी की। अन्तःप्रेरणा से अभिप्रेरित होकर लिखी गयी इनकी यह पुस्तक अमेरिका में गुलामी प्रथा के अन्त के लिए वरदान साबित हुई।  ये दोनों उदाहरण इसके प्रमाण हैं कि सफलता के लिए परिस्थितियों का उतना महत्व नहीं है जितना कि स्वयं की इच्छाशक्ति और मनःस्थिति का। आशावादी द

एक छोटी सी गलती की इतनी बडी सज़ा।(कहानी)

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एक छोटी सी गलती की इतनी बडी सज़ा।(कहानी )   एक बार की बात थी। एक राजा था। स्वभाव से वह बहुत क्रूर स्वाभाव का इंसान था। जिससे नाराज हो जाता, उसके प्राण लेने में तनिक भीबदेर नहीं लगाता था।  राजा के विश्वासपात्र अनुभवी मंत्री से एक छोटी सी गलती हो गयी। गलती तो जरा सी थी, पर राजा आख‍िर राजा ही ठहरा। वह मंत्री की उस छोटी सी गलती को भी सहन न कर सका। उसने क्रोधित होकर मंत्री को शिकारी कुत्तों के आगे फिंकवाने की आज्ञा दे दी।   राजा के नियम के अनुसार मंत्री को कुत्तों के आगे फेंकने से पहले उसकी आखिरी इच्छा पूछी गयी।  मंत्री हाथ जोड़कर बोला- “राजन! मैंने आपका नमक खाया है।'' यह कहते हुए मंत्री ने एक लम्बी सांस ली और फिर अपनी बात आगे कही, ''एक आज्ञाकारी सेवक के रूप में आपकी 10 सालों से सेवा करता आया हूं।''   ''तुम सत्य कह रहे हो,'' राजा ने नाग की तरह फुंफकारते हुए उत्तर दिया, ''लेकिन यह कह कर तुम इस सजा से कभी नहीं बच सकते।''   ''नहीं राजन, मैं सजा से बचना नहीं चाहता,'' मंत्री ने अपने हाथ फिर से जोड़ दिये, ''बस

एक वर्तमान की कहानी

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एक वर्तमान की कहानी   बहू बार बार अपने सास पर दोषारोपण किये जा रही थी और पति उसको अपनी हद में रहने की कह रहा था। लेकिन पत्नी चुप हो ही नही ले रही थी और जोर से चीख चिल्ला चिल्ला कर कह रही थी कि -  उसने अंगूठी उसी टेबल पर ही रखी थी, और तुम्हारे और मेरे अलावा इस कमरें मे कोई नही आया अंगूठी ज़रूर ही मां जी ने ही उठाई है।   बात जब पति की सहन के बाहर हो गई तो उसने पत्नी को एक जोरदार तमाचा दे मारा अभी तीन महीने पहले ही उनकी शादी हुई थी।     पत्नी से तमाचा सहन नही हुआ। वह घर छोड़कर जाने लगी और जाते जाते पति से एक सवाल पूछा कि तुमको अपनी मां पर इतना विश्वास कैसे है..??   तब पति ने जो जवाब दिया उस जवाब को सुनकर दरवाजे के पीछे खड़ी मां ने सुना तो उसका मन भर आया पति ने पत्नी को बताया कि  "जब वह छोटा बच्चा था तब उसके पिताजी काम उम्र में ही गुजर गए। मां मोहल्ले के घरों मे झाडू - पोछा लगाकर जो कमा पाती थी, उससे एक ही वक्त का खाना आता था।        मां एक थाली में मुझे परोसा देती थी और खाली डिब्बे को ढककर रख देती थी, और कहती थी-" मेरी रोटियां इस डिब्बे में है बेटा तू खा ले। मैं

क्षमाशीलता

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क्षमाशीलता   क्षमा मनुष्य को ऊंचाइयों और ले जाती है:  और व्यक्ति बदला लेकर दूसरे को नीचा दिखाता है, पर इस प्रयास में वो स्वयं बहुत नीचे उतर जाता है। 🔵 एक बार की बात थी एक धोबी नदी किनारे रोज की तरह कपडे धोने आया। उसी स्थान पर कोई महाराज भी ध्यान की अवस्था में थे। धोबी ने तेज़ से आवाज़ लगायी, उसने नहीं सुनी। धोबी को जल्दी थी, और दूसरी आवाज़ लगायी वो भी नहीं सुनी तो धोबी ने धक्का मार दिया। 🔴 महाराज की आँखें खुली, क्रोध की ज्वाला उठी दोनों के बीच में खूब मार -पिट और हाथा पायी होने लगी । लूट पिट कर दोनों अलग दिशा में बैठ गए। एक व्यक्ति दूर से बैठ कर ये सब देख रहा था। साधु के नजदीक आकर पूछा, महाराज आपको ज्यादा चोटें तो नहीं लगी, उसने आपको मारा बहुत । महाराज ने कहा, उस समय आप छुडावाने नहीं आए?       व्यक्ति ने कहा, आप दोनों के बीच मे जब लड़ाई हो रही थी उस समय में यह निर्णय नहीं कर पा रहा था की धोबी कौन है और साधू कौन है? 🔵  प्रतिशोध और बदले की भावना साधू को भी धोबी के स्तर पर उतार लाती है। इसीलिए कहा जाता है की,- बुरे के साथ बुरे मत बनो, नहीं तो साधू और शठ की क्या पहचान।  दूसरी तरफ,