"हार नहीं मानूंगा, रार नहीं ठानूंगा", "काल के कपाल पर लिखता मिटाता हूँ"


अटल विहारी वाजपेयी जी ने राजनीति में रहते हुए भी अपने जीवन के मानवीय पक्षों को अपने से कभी भी दूर नही किया। वे बहुत ही प्रभावशाली व्यक्तित्व के प्रगति प्रवर्तक राजनेता ही नही है अपितु एक
नेक इंसान और एक महान कवि भी रहे ,अपने प्रसिद्ध रचना "हार नहीं मानूंगा, रार नहीं ठानूंगा", "काल के कपाल पर लिखता मिटाता हूँ", जैसीे कविताओं से सभी के ह्रदय को जीतने वाले एक महान रत्न के जीवन के कुछ कविताओं को पढतें हैं।



 

गीत नया गाता हूँ


टूटे हुए तारों से फूटे बासंती स्वर ,
पत्थर की छाती में उग आया नव अंकुर,
झरे सब पीले पात,
कोयल की कूक रात,
प्राची में अरुणिमा की रेख देख पाता हूं।
गीत नया गाता हूँ।
टूटे हुए सपनों की सुने कौन सिसकी?
अंतर को चीर व्यथा पलकों पर ठिठकी।
हार नहीं मानूँगा,
रार नहीं ठानूँगा,
काल के कपाल पर लिखता मिटाता हूँ।
गीत नया गाता हूँ।
-अटल बिहारी वाजपेयी






आओ फिर से दिया जलाएं



 भरी दुपहरी में अँधियारा,
सूरज परछाई से हरा,
अंतरतम का नेह निचोड़े, बुझी हुई बाती सुलगाएँ।
आओ फिर से दिया जलाएं।

हम पड़ाव को समझें मंजिल,
लक्ष्य हुआ आँखों से ओझल,
वर्तमान के मोहजाल में, आने वाला कल न भुलाएँ।
आओ फिर से दिया जलाएं।

आहूति बाकी यज्ञ अधूरा,
अपनों के विघ्नों ने घेरा,
अंतिम जय का वज्र बनाने, नव दधीचि हड्डियाँ गलाएँ।
आओ फिर से दिया जलाएँ।
-अटल बिहारी वाजपेयी

 

 

 

गीत नहीं गाता हूँ


बेनकाब चेहरे हैं,
दाग बड़े गहरे है,
टूटता तिलस्म , आज सच से भय खाता हूँ।
गीत नहीं गाता हूँ।

लगी कुछ ऐसी नज़र,
बिखरा शीशे सा शहर,
अपनों के मेले में मीत नहीं पाता हूँ।
गीत नहीं गाता हूँ।

पीठ में छुरी सा चाँद,
राहु गया रेख फाँद,
मुक्ति के क्षणों में बार बार बंध जाता हूँ।
गीत नहीं गाता हूँ।

-अटल बिहारी वाजपेयी


 

 अटल जी की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वह गलतियों को सुधारने में सदैव प्रयासरत रहते। उन्हें तब तक चैन नही आता है जब तक वे अपने भूल में सुधार नही कर लेते। ठंडाई के शौकीन, लोगों के साथ बैठ कर बात करने में बड़ा आनंद आता था, उन्होंने किसी को भी निराश नहीं किया। जीव जंतुओं के प्रति दया भाव रखते। सभी तबके के लोगों के प्रति सहानुभूति, कोमल मन के स्वभाव के कारण सभी के प्रिय बने रहे।

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