त्याग का आदर्श (कहानी)

एक राजा था ,वह बहुत ही दानी प्रवृत्ति का था। यदि उसके सामने कोई भी भूखा आ जाता। वह तुरन्त अपना भोजन भूखों को दे देता था। अपने सारे स्वार्थ और भूख भूल कर वह निस्वार्थ भाव से लोगों की सहायता करता रहता था।
        एक दिन की बात थी। वह शाम को भोजन करने के लिए बैठा। वह यह जान कर बहुत ही खुश हुआ की आज उसके राज्य में कोई भी भूखा नही है। आज वह कई दिनो बाद पेट की क्षुधा मिटायेगा। वह दिन प्रतिदिन अपना भोजन, भूखों को दान कर दिया करता था। वह अनवरत बिना खाये दूसरों की सेवा में लगा रहता था। परन्तु आज कोई भी नही आया ,जिसकी सेवा की जा सकती थी। जब वह खाने बैठा तो एक ब्राह्मण आया । राजा ने तुरन्त उन्हें भोजन दिया। अब जैसे ही वह पुनः भोजन के लिए बैठा, फिर से फकीर आ गया, राजा ने अपना बचा भोजन फ़कीर को दे दिया। उसके बाद उनके पास भूखा जमादार आया, राजा ने उसे भी भोजन खिलाया। अब उसके पास केवल पानी बचा। उसने सोचा चलो कोई बात नहीं आज जल पीकर ही पेट भर लूँगा। अब वह जैसे ही जल पीने के लिए हाथ बढ़ाया, उसके महल के पास एक प्यासा कुत्ता आ गया। उसने वह पानी भी कुत्ते को दे दिया। अब वह राजा रोज़ की तरह भूखा ही रह गया। अब वह रोज़ की तरह क्रिया कलाप का पालन करता।
 वह सोने के लिए प्रस्थान किया ,निद्रा आने से पहले उसे अलौकिक आनंद की अनुभूति हुई ,उसके दिल को सुकून मिला। उसकी वह अनुभूति शाश्वत अनुभूति थी,जिसे हम शब्दों में वर्णित नही कर सकते।
      दोस्तों, आपने कभी किसी ज़रूरतमंद की सहायता निःस्वार्थ भावना से की है? यदि की होगी तो आप के अनुभव को आप से बेहतर कोई नही बता सकता। यह एक शाश्वत अनुभूति होती है जिसमें आप का कोई भी स्वार्थ निहित नहीँ होता है।

 "क्षुर्धात रन्ति देव ने ,दिया करास्थ थाल भी,
तथा दधीचि ने दिया ,परार्थ अस्थि जाल भी।
उसी नर क्षितीस ने ,स्वमांस दान भी किया,
शाहर्ष वीर कर्ण ने ,शरीर चर्म भी दिया।
अहा वही उदार है,परोपकार जो करे,
वही मनुष्य है कि जो, मनुष्य के लिए मरे।"

टिप्पणियाँ